शुक्रवार, 17 मई 2013

'मालिक' नहीं बने तेंदूपत्ता मजदूर..!




 राजनेता भी जनता के साथ खूब मजाक करते हैं और भोली जनता उनके इन फंडे को समझ नहीं पाती.गरीबी हटाओ,मंदिर वहीँ बनायेंगे,सौ दिन में महंगाई कम कर देंगे.फील गुड’ जाने क्या-क्या पर जिस मजाक के बारे में लिख रहा हूँ वो है, ‘तेंदूपत्ता मजदूर [ बीडी पत्ता मजदूर ] मालिक बनेंगे.

अर्जुनसिंहजी ने 1988 में मध्यप्रदेश की तीसरी बार कमान संभाली. मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा को केंद्र में स्वास्थ्य मंत्री बना दिया गया था.अब मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के लिए अर्जुनसिंह जी को म,प्र. की किसी विधानसभा सीट से चुनाव जीत कर विधायक बनाना था. कांग्रेस की परम्परागत सीट खरसिया उनके विश्वासपात्र लक्ष्मी पटेल ने खाली कर दी.भाजपा के दबंग प्रत्याशी दिलीपसिंह जूदेव मैदान में थे, इस चुनाव में भाजपा के लखीराम अग्रवाल और उनके साथियों ने ऐसी रणनीति बनाई की अर्जुनसिंह बड़ी मुश्किल आठ-नौ हजार से जीत सके. उन्होंने विजय जुलूस भी न निकला.
लखीरामजी तेंदूपत्ता के जाने-माने व्यापारी रहे .उनके साथियों ने इस चुनाव में पैसे की कोई कमी न होने दी थी. चुनाव पश्चात् अर्जुन सिंह खुश न थे, उनके दिमाग में कुछ और चला रहा था. उन्होंने बिलासपुर में पत्रकारवार्ता में साफ कहा कि अगले साल तेंदूपत्ता नीति में तब्दीली कर दी जाएगी ,बिचोलियों को जंगल में घुसने नहीं दिया जायेगा. इस वार्ता में नवभारत के वरिष्ठ पत्रकार रामगोपाल श्रीवास्तव ने उतराभाषी सवाल किया,’क्या इसे सहकारिता के माध्यम से ये कार्य होगा. रामगोपालजी सहकारिता से जानकार थे. अर्जुनसिंह जी को बात जमी और कहा , इस सम्बन्ध में नीति बनाई जाएगी.

 अर्जुनसिंह के भोपाल पहुँचते ही तेंदूपत्ते का तूफान खड़ा हो गया.’बिचोलियों’ के हाथ से तेंदूपत्ते का कारोबार जाता रहा.अजीतजोगी खरसिया उपचुनाव बाद की नई नीति को प्रभावी करने में लग गये.पूरा प्रशासकीय अमला अगले साल तेंदूपत्ता संग्रहण में लग गया. ‘मजदूर को मालिक’ का नारा सामने आ चुका था.अर्जुनसिंह जब बिलासपुर आते तो लखीरामजी का नाम न लेते उन्हें ‘सेठ’ कहते.बाद श्री सिंह ने ‘सेठ’ शब्द वापस ले लिया. उधर तेंदूपत्ता लाबी भी सामने कमर कस कर आई,अर्जुनसिंह केंद्र चले गये और मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री बने.पर इस राजीतिक उठापटक के बावजूद पत्ते की नीति नहीं बदली.अब मजदूर को मालिक बनाने की कमान वोरा के पास थी.
तेंदूपत्ता हाथ के आकार का खरीदा गया, मजदूरी बढ़ा दी गई थी,फिर मजदूर को मालिक बनाने तेंदूपत्ता के लाभांश [बोनस] का हकदार इन मजदूरों को बना दिया जाने गया. हर साल बिके पत्ते पर मिले लाभ का मजदूरों को बोनस दिया जाता है. मई 2013 से विकास यात्रा के साथ रमन सिंह ने बोनस वितरण शुरू किया है जो तेंदूपत्ता संग्रहण का कार्य में अब तक चल रहा है. ये बीते साल तेंदूपत्ता संग्रहण के लाभ का अस्सी प्रतिशत है..तेंदूपत्ते को ‘हरा सोना’ कहा जाता है. इस साल बोनस को हरे सोने में ‘सुहागा’ का नाम दिया गया है.

पत्ते के तूफान को लगभग ढाई दशक होने वाले हैं . इस बीच छतीसगढ़ राज्य बन गया पर क्या तेंदूपत्ता जमा करने वाला मजदूर सही अर्थों में मालिक बना, अथवा  उसके साथ मजाक हुआ और वो छला गया. ये विचारणीय है.ये मजदूर तपती गर्मी में पसीना बहते हुए तेंदूपत्ता खरीदी स्थल तक लाते हैं. इसके उपरांत भी मुझे नहीं लगता कि इनकी मालीदशा में भी कोई खास तब्दीली आई है.जबकि मजदूरी और बोनस की राशि बढ़ती जा रही है.

तेन्दूपत्ता संग्रहण का काम बमुश्किल तीस-चालीस दिन होता है. इतने कम दिन के काम बाद इनको दूजे काम की तलाश करनी होती है.प्रदेश में इसकी संख्या 13 लाख 77 हजार परिवार दर्ज है.इनमें अधिकांश अन्त्योदय और प्राथमिक परिवार है, याने एक रूपये या दो रूपये किलो खाद्यान्न मिलाता होगा.कई अन्य योजनागत कार्यो में इन मजदूरों को कम मिलाता है ,तो फिर इनके जीवन स्तर में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया. इस साल इन मजदूरों को 312 करोड़ बोनस वितरित होगा.
मजदूर दशा यथावत क्यों हैं -

बोनस की रकम मजदूर तक नहीं पहुँचती -जो मजदूर तेंदूपत्ता  संग्रहण करते है,वे अशिक्षित हैं और ‘बोनस’ की समझ नही.पत्ता खरीदी के समय कई का नाम नहीं भरा जाता,उनके बदले परिचितों,रिश्तेदारों के नाम से खरीदी बताई जाती है. बोनस हक़दार तक पहुंचा, इसकी जाँच ईमानदारी से होती रहनी चाहिए.! पता लगाना होगा जिन समितियों के माध्यम बोनस दिया गया उनके सदस्य सही में कितने हैं.नगद न पांच हज़ार तक के बियरर चेक की राशि किसे मिली.
पत्ते का तूफान अब थम गया है. इस बवंडर थमने के बाद सारी गर्द बैठ गई है,साफ है ये एक वक्ती नारा था, नहीं तो मजदूर पसीना बहा कर पत्ता नहीं तोड़ता और कंवर से मीलों दूर बोझा उठा कर नहीं लाता,.यदि मालिक को बोनस का फंडा न होता तो पत्ता तोड़ने वाले को उसी समय बोनस की संभावित राशि  दी जाती तो मजदूर को अधिक पैसा मिलाता वहीँ घपले के नया दरवाजा नहीं खुलता..!

कुछ और -
# कलेक्टर साहब के साथ जंगल तेंदूपत्ता के कार्यो का जायजा लेने पत्रकारों का दल जाता.हर पूरा सरकारी अमला पत्ता खरीदी कार्यो में लगा रहता. वाहनों में लिखा होता ‘तेंदूपत्ता आवश्यक’.दफ्तर खाली हो जाते.

# तेंदूपत्ता के कारोबार से अमीर बने मेरे एक दोस्त ने तेंदू का हरा फल न देखा था,बंगले में वो पेड़ पर लगे फल को वो न पहचान सका.

# एक बार मैंने तेंदूपत्ता मजदूर को पेप्सी के एक लीटर की खाली बाटल दी,वो बड़ी माँगा,मैंने पूछा तो वो वोला मई में पसीना खूब निकलता है. पानी के लिए बड़ी बोतल ही ठीक है.

#  तेन्दूपत्ता मजदूर तो 'मस्त मौला 'है. वो हर गम धुएँ में उड़ाए चल रहा  है.
     

1 टिप्पणी:

Rahul Singh ने कहा…

नीति, तंत्र के साथ अंतिम लक्ष्‍य तक पहुंचते क्‍या से क्‍या हो जाती है, लेकिन बेहतरी के लिए प्रयास, संभावना बनी रहे, तभी कल्‍याण संभव है.