बुधवार, 31 दिसंबर 2014

शाह परिवार की कुञ्ज वाटिका ..








फूलों से लगाव किसे नहीं होता,पर बिलासपुर के उद्यमी शाह परिवार की बात निराली है ..मेरे मित्र  सतीश शाह का कहना  है, ये शौक उनके परिवार को  पिताश्री  गौरीशंकरजी  से विरासत में मिला हैं ,तब वे चाईबासा में रहते थे ,पिता रोज अपने बच्चों से  बागवानी में काम करते ,,बाद  सतीश शाह ने  बाटनी में एम् एस सी की और बाद  कारोबार के सिलसिले में बिलासपुर में आ कर बस गये    ,,उनकी वाटिका शहर से कोई  नौ किमी दूर चिरिदा रोड में छ एकड़ में है, यहाँ डेयरी है और घर के लिए सब्जी भी जैविक खाद पर उगते है ,,वे  रोज सुबह अपनी वाटिका में  पहुँच जाते हैं ,,शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती भी उनके इस फार्म हॉउस में पधारे और उन्होंने इस वाटिका का नाम 'कुञ्ज कुटीर' दिया ,,उनके दो भाई  हरीश ,गिरीश  सहित शाह परिवार की रूचि का फूल और फलों  में  है  सबने  यह यहाँ  मीठे  आम  नारियल ,शहतूत, बांस  रुद्राक्ष , बेर  के अलावा  दुर्लभ  पेड़ और जडीबुटी  के पौधे   भी लगाये गए हैं ,,!

रविवार, 28 दिसंबर 2014

आयुर्वेद औषधि और आस्था




''पेड़ पर किसी परजीवी की तरह हडजोड़ के बेलें लिपटी दिखीं,नीचे छोटा सा मन्दिर, बिलासपुर से खोंद्रा जंगल जाते हुए हमारी 'सोशल मीडिया' टीम एनटीपीसी सीपत के पहले गाँव पंधी में 'नई- दुनियां' के फोटो जनर्लिस्ट जितेन्द्र रात्रे को लेने रुकी, मेरी नजर सड़क के किनारे इस पर पड़ी..!
करीब बैठी बूढीमाँ ने बताया,,हड्डी जोड़ने और घाव भरने के लिए ये परम्परागत ये औषधि है,,दूर दूर से ग्रामीण यहाँ जरूरत के लिए आते हैं,, इसे तोड़ने के पहले नीचे बने मदिंर में नारियल चढ़ते और पूजा करते है,,उनका मानना है औषधि के पर आस्था से उसका गुण और बढ़ जाता है साथ ही वो जो उसे तोड़ कर क्षति पहुंचाते हैं ये उसके प्रति कृतज्ञता भी इस माध्यम से प्रकट करते है..! ये पेड़ और उस पर चढ़ी  हडजोड  की बेल बरसों पुरानी है ,,काफी  दूर गाँव के लोग यहाँ जरूरत पर पहुँचते है..

धन्य है ये आस्था जिसमें इलाज के कोई व्यसायिकता नहीं बस श्रद्धा है ,,! ,

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

अंग्रेज़ों के मजबूत निर्माण कार्य


अंग्रेजों का बनवाया जटिल पूल 'अक्वाडक्ट' [Aquaduct] चौरासी साल बाद भी मजबूत है,और अब बनाये पुल कुछ साल बाद ही खस्ताहाल.!

ये फोटो मनियारी नदी बने सुंदर बांध खुडिया [राजीव गाँधी जलाशय ] नहर की है..,,मुंगेली जिले में बार-बार अकाल से निपटने अंग्रेजों ने पहाड़ियों के बीच ये जलाशय सन 1930 में बनवाया था,इस पुल की विशेषता ये है की नीचे से मनियारी नदी और ऊपर से इस बांध की नहर का पानीजाता है साथ ऊपर किनारे से एक राह भी है जहाँ से कार नहर की सड़क पर जाती है ,,आज भी इसका भव्य और मजबूत निर्माण हैरत में डाल देता है,,!

अब बात हो जाये बिलासपुर जिले की अरपा नदी पर लिंगियाडीह में बनाये पुल की जो अपनी मियाद पूरी होना तो दूर कुछ बरस में खस्ताहाल हो गया और यातायात बंद कर दिया गया,,मजे की बात है इस मामले में सभी आरोपी सींकचों के बाहर हैं...!

रविवार, 14 दिसंबर 2014

गुजरात के विकास पर सवाल और छतीसगढ़







''जब में ऊंट और कूत्तों के साथ गुजरात के भेड़-बकरी पालकों को बिलासपुर के जंगलों मे देखता हूँ तो दो ही विचार आते हैं-
क्या गुजरात के नरेंद्र भाई मोदी के विकास की किरणें यायावरी करते जीवन व्यतीत करने वाले इन राबारी लोगों तक नहीं पहुंची..और मोदी के विकास की अवधारण मिथ्या है. दूसरा ये कब तक छतीसगढ़ के जगलों का सत्यानाश वन विभाग के अमले से मिल कर करते रहेंगे ,,!! इनके पास हजारों भेड़-बकरियां होती हैं और ये दशकों से छतीसगढ़ के वन का विनाश कर रहे हैं ,,!

कल हमारी सोशल मीडिया की टीम ने रतनपुर मजवानी-केंदा का भ्रमण किया तो इनके दो जत्थे मजवानी के आगे बढ़ते मिले जो अपने रेवड़ और साथियों को खोज रहे थे ..जत्थे में महिलाए,युवती और बच्चे थे ,,! बच्चे को ऊंट पर होदे में मेमनों के साथ रखा गया था.. राह  में एक मेमने को पांच सौ में महिला ने ग्रामीण को बेचा ,,,! 

आगे वो वन है जहाँ अचानकमार से गुजरने वाली सड़क को वैकल्पिक सड़क बनाने के लिए पर्यावरण विभाग के स्वीकृति ले जूते घिस गए ..ऊटों का काफिला उसे तरफ बढ़ा गया ,, क्या ये वन विभाग को नहीं दिखता या बात कुछ दूसरी है ,,!

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

अधिकारी गए स्वप्न बिखरा ,,


.कोबरा जैसे जहरीले सांप पकड़ घूम-घूम के दिखा कर मिले पैसे से जीविकोपार्जन करने वालों तक़दीर नही बदली,,बिलासपुर में कोई ढाई दशक पहले कलेक्टर इन्द्र नील दाणी ने कोटा के करीब इनको विकास के साथ जोड़ने के सपना देख काम किया पर पिछले दिनों जंगल जाते देखा.. आज भी इनके बच्चे सांप दिखा कर चौक पर पैसा मांग रहे है,,!!

वन विभाग को कोई सरोकार नहीं,,शायद उनकी नजर में सांप पकड़ना और दिखाना सब चलता है कोई अपराध नहीं ,,! और इन बच्चों के लिए ये पैतृक कार्य,,इनकी प्रथा रही कि 'बेटी को दहेज में पिता सांप दे कर विदा करता ताकि दामाद और बेटी परिवार चला सकें..!
मैंने और मेरी पीढ़ी के पत्रकारों ने तब कलेक्टर दाणी के साथ जा कर घोंघा जलाशय के करीब बसाये गए इस बसाहट की कई बार रिपोर्टिंग की थी,,उत्सुकता से मैंने इन संवारा- सपेरे बच्चों से पूछा तो पता लगा गाँव तो है और इनकी जाति के लोग आसपास के गाँव में भी बस गए हैं और अधिकांश सांप दिखने कर मिले पैसे से पेट पलते है,,! इन बच्चों के देख नहीं लगा की इनने कभी स्कूल का दरवाजा देखा होगा ,,!
कलेक्टर इन्द्रजीत दाणी का स्वप्न बिखर गया ,,कमिशनर हर्ष मंदर आज लेखक के रूप में जाने जाते हैं, उन्होंने बिलासपुर में सहकारिता आधारित डेयरी का सपना देखा और बिलासा डेयरी बड़ी 'आशा' से खड़ी की बाद गायों की खाने चारा नहीं मिला ,,सीएफ रहे डीएन तिवारी की लमनी की नर्सरी का पता भी लोग भूल गए ,,!
मित्रों आखिर ऐसा क्यों होता है..
1,क्या उनके बाद आने वाला अधिकारी बाकी तो चार्ज लेता है पर गए अधिकारी के सपने से उसका कोई सरोकार नहीं होता ,,
2,या वो महज अधिकारी का सपना होता है और जिनके परिवर्तन के लिए देखा उनको यथास्थिति ही पसंद है ,,या फिर वे बदलाव से अपने को जोड़ नहीं पाते,,! ये मंथन का विषय है ,,!

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

विकास और आदिवासी




बस्तर के कलेक्टर रहे बीडी शर्मा ने करीब तीस साल पहले लिखा था कि,'बस्तर में किसी गाँव को सड़क से जोडों तो आदिवासी गाँव छोड़ चले जाते हैं..मेरा ये मानना है वो शायद इसलिए कि '' इस सड़क से आने वाले शहरी उनके मुर्गे खा जाते होंगे यहाँ फिर उन्हें आने वालों शहरीजनों की नजर से अपनी बहू-बेटियों को बचाना होता होगा,,!

पर इस बात को काफी समय हो गया है..बीते संडे हमने पक्की सड़क छोडकर आदिवासियों को जंगल से अंदर से जाते देखा,,मेरे साथ पत्रकार सत्य प्रकाश पाण्डेय,शिरीष डामरे,मुकेश मिश्रा भी थे..! जगह थी अचानकमार के जंगल का बफरजोन !
हमारे देखते-देखते उन्होंने नदी पार को और फिर जंगल में ओझल हो गए ,,! कम से कम वो वो परिवार में थे और हाथ कुल्हाड़ी भी न थी याने वे लकड़ी काटने वाले नहीं थे ,,! 

मेरे दिमाग में सवाल अनुतरित रह गए जिस वक्त और आप को सौंपता हूँ ,,!
1, क्या आदिवासी आज भी शहरीजनों से दूरी बनाये रखना चाहता है..?
2, सड़क को छोड़ वो शार्टकट क्यों चल रहा है जबकि यातायात सुविधा उपलब्ध है ?
3,या फिर वनपुत्रों को सड़क के बजाय जंगली पगडंडी ही पसंद है जिस रहा में वो सदियों से चल था हैं 4,अन्य कोई कारण..
मेरे लिए उंनका मीलों दूर इस तरह गंतव्य को बच्चे और कुत्ते के संग जाना यक्ष प्रश्न बना है ,,क्योकि ये मामला वनोपज संग्रह से नहीं ,,पूछा तो वो बोलते नहीं बढ़ते गए ,,!

रविवार, 7 दिसंबर 2014

छतीसगढ़ में आय का एक नया स्रोत ,,





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बरसात के बाद ठण्ड ,के दिनों चरौटा बीज जमा कर बेचने से छतीसगढ़ के गाँव वालों और आदिवासियों को आतिरिक्त आय होने लगी  है ..बारिश की पहली फुहार के उगी चरौटा के पत्ते तोड़ साग बनाया जाता रहा है,,पर अब इसका बीज विदेश निर्यात किया जाने लगा हैं ,,,इसके औषधीय गुणों की पहचान हो चुकी है ,,,!

हर साल बड़े पैमाने में उगने वाले चरौटा के बीज का मूल्य गेंहू और चावल से अधिक है ,,ये तीस से पैंतीस रूपये किलो बिक रहा है और इस मूल्य में एक किलों चावल के साथ एककिलों गेंहू मिल जाती है..!

स्वयमेव उगी चरौटे की फलियाँ ठण्ड के शुरुवाती  दिनों सूख जाती है ,,ग्रामीण इसके काट कर सड़क पर डाल देते है और हर आने-जाने वाले वाहन से इसकी मिसाई होती जाती है ,,फिर बीज छान कर अलग कर लिया जाता है ,,,बरीघाट में एक परिवार ने बताया कि कुछ समय पहले 25 रूपये किलो का रेट रहा पर अब बढ़ गया है ,,!
इसका उपयोग काफी से समान पेय बनाने में किया जाता है ,,जो जोड़ों के दर्द की कारगर दवा है ,,पहले इसे भुना जाता है तब ये कुछ तैलीय पदार्थ छोड़ देता है ,,अब बीज काढ़े के लिए तैयार है ..जो चाय या काफी के समान पिया जाता है ,,पचास फीसद को ये जोड़ों के दर्द में लाभ पहुंचता है ,,जबकि कुछ को ये नहीं भाता ,,इस गुण के कारण ये विदेश में इसकी बढ़ी मांग निकल आई है ,,साल के कुछ दिनों तो ये बीजा बिलासपुर की प्रसिद्ध अमरनाथ की दुकान में 80 से सौ रूपये किलो तक बिका है ,,हैं न ,चौखे रंग वाली बात ,,!

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

संस्कृति के विकास की धारा





आदिवासी विकास करें और उनका भोलापन उनकी संस्कृति भी बरकरार रहे ये चिंता समाजशास्त्रियों के एक वर्ग को लगी रहती है ,,! उनके लिए ये भली खबर है ,,
स्थान है- बिलासपुर-अमरकंटक सड़क मार्ग.
आयोजन- स्कूल के मैदान में संस्कृतिक आयोजन,,
आयोजन स्थल पर मैंने सजी हुई इनमें एक लोककलाकार से पूछा- तो गोदना दिख रहा है वो असली है क्या ,,वो निश्छल मुस्काते हुए बोली- 'सर हम लोग स्टूडेंट है' ,,!!
फिर उनकी प्रस्तुति का वक्त आया- वही नाचा वही तरीका और गीत जो सालों पहले मैंने बैगा समूह में देखा इस इलाके में सड़क बनने के बाद, रात मस्ती में नृत्यरत देखा था ,,!
लोककला की विरासत पूरी तरह चली आई, बहती मनियारी नदी की धारा के साथ, पहाड़ी हवा की ताजगी और उससे जनित उर्जा इनमे बनी है.. लेकिन अज्ञानता को कही जंगल में इनके ज्ञान ने पीछे छोड़ दिया है ,,,!

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

पहाड़ हो रहे समतल ,,





''क्या हम कोई पहाड़ बना सकते है,तो फिर पहाड़ों को समतल करने का अधिकार भी हमारा नहीं होना चाहिए,,जिन पहाड़ों पर हरियाली कम है , उनको हरा-भरा बनाया जा सकता है, रतनपु र[बिलासपुर ] की राम टेकरी पर कुछ सालों में हरियाली छा गई है,पर इसके बीस किमी के इर्द-गिर्द पहाड़ों का विनाश हो रहा है ,,! 

कभी इन पहाड़ों पर वन्यजीव रहते थे ,,पर उत्खनन को कोलहल से वो घने जंगल भाग गए या मार डाले गए,आज एक तेंदुआ वन्यजीव न होने के कारण गाहे-बगाहे बस्तियों में घुस रहा रहा ,,! कुछ माह से उसकी सक्रियता बनी है ,,!!

ये सारी फोटो कोटा रतनपुर के इलाके की हैं ,,,'अंतिम फोटो' में पहाड़ की चोटी पर दिख रहे शिलाखंड के देख कुछ दशकों में इस पहाड़ पर भी क्रशर से गिट्टी बनने वाले यहाँ भी वैध-अवैध अपना ठिकाना बन लेंगें ,,!!
जल जंगल जमीन के लिए इधर कोई बोलने वाला नहीं ,,! या फिर कोई सुनने वाला नहीं ,,! हे राम !

मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

विकलांगता का दर्द समझ में आया


'कहते हैं गुरु जगह-जगह मिल जाते हैं,मुझे एक ऐसे ही गुरु मिले जिन्होंने मेरा नजरिया ही अशक्त व्यक्तियों को देखने का नजरिया ही बदल दिया..!
बात विभाजित मध्यप्रदेश के दिनों की है ,,मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह बिलासपुर आये थे,मैं उनदिनों दैनिक भास्कर का सम्पादक था, फोटोग्राफर जितेन्द्र ठाकुर सिटी चीफ प्रवीण शुक्ला कवर करने गए थे ,,मुझे प्रवीण जी का फोन आया की 'दिग्गी राजा' धान के खेत में फसल देखने रुके और जितेन्द्र ठाकुर फोटो लेने उतरा वो सड़क पार कर रहा था कि काफिले की किसी कार ने आगे बढने की होड़ में उसे टक्कर मार दी है ,,, मैं जिला अस्पताल पहुंचा, जितेन्द्र एक्सरे रूम में था, मैं सीधे सिविल सर्जन डा. त्रिपाठी से मिला और कहा- जितेन्द्र को अच्छा बेड और कमरा मिले.. और जब तक उसे छुट्टी न दी जाये जब तक वांछित मुआवजा न मिल जाये,,!
तीन दिन हो गए पर उसे कोई पैसा नहीं मिला नेता आज कल करते रहे,,,मैं चाहता था की उसे इतना मुआवजा तो मिले जिससे वो अपनी बाईक के ले और फिर वो अपना काम सहूलियत से कर सके,मैं फिर डा.त्रिपाठी से मिला और इस बार अपना मकसद पूरा करने जोर देते हुआ कहा- डा,प्लास्टर तो ठीक है पर उसे डिस्चार्ज नहीं कीजियेगा ,,साथ ये भी कहा- मुझे पता है आपको सुनाई कम देता है और कलेक्टर का फोन आपका बेटा सुनाता है फिर वो आपको बताता है ,,!
डा, त्रिपाठी ने कहा- ''आप इसे चाहो तो छाप दें मेरा तो रिटायर्मेंट होने वाला ही है,,पर एक बात आपको बता दूँ एक विकलांग या निशक्त व्यक्ति अपना जीवन किस तरह जीता है तुम उसकी दिक्कत जानते नहीं ,,,'वैसे मैं जितेन्द्र छुट्टी अभी नहीं दूंगा ,,! [बाद उसे मुआवजा मिला]
मैं हिल गया भीतर तक ,,मुझे जीवन के मोड़ पर एक गुरु मिल गया और जीवन का नजरिया,आज जितेन्द्र ठाकुर 'नई दुनिया' में है और डा, त्रिपाठी का क्लिनिक ,,जब मैं उधर से गुजरता हूँ उनके प्रति श्रद्धा से मन भर जाता है ,,! 
[पहली फोटो गूगल, से  नीचे की फोटो मेरी]