गुरुवार, 30 मई 2013

मानसून से पहले आने वाला मेहमान



 मानसून के पहले एक प्यारा सा मेहमान पहुँच जाता है, दूर देश से उड़ के आने वाले इस मेहमान को चातक [pied crested cuckoo] कहते हैं, आम तौर पर या पक्षी जून माह के प्रथम सप्ताह तक पहुँच जाता है. कोयल परिवार का ये परिंदा मेरा पुराना परिचित है. मैं हर साल इसकी पियू-पियू..पी की आवाज की प्रतीक्षा करता हूं. मेरा इसका परिचय तीस-पैंतीस साल पुराना है.
मेरे मंगला गाँव के फार्म में आने वाले मेहमान को पुराने खेतिहर साथी भी पहचानते है और वो भी कभी-कभी इसके आगमन की जानकारी मुझे पहले दे देते हैं.पक्षी विज्ञानी सलीम अली के अनुसार कोयल प्रजाति के वर्षा प्रिय चातक की एक प्रजाति [रेरेट्स] अफ्रीका से आती है. जब ये पहुँचती है तब मीलों लम्बी उड़ान के बाद थकी होती है और काफी करीब जाने पर भी ये नहीं उड़ती. पर सप्ताह भर में इसको उतने करीब नहीं देखा जा सकता .

चातक करीब 18 इंच लम्बा प्रवासी पक्षी है जिसके नीचे के पर सफ़ेद और ऊपर के काले होते है और पूंछ के पंख लम्बे, इसकी उडान कोयल की उड़न शैली से मिलती जुलती है. उड़ाते समय दोनों तरह पंखों में एक रूपये के आकार का सफ़ेद गोला सुंदर दिखाई देता है. कीट-पतंगे और इलियाँ इसकी आहार तालिका में शामिल हैं. नर-मादा के पीछे एक उड़न भरते दिखाई देते हैं, ये उनका प्रजनन काल होता है. कोयल परिवार की दीगर सदस्यों की भांति ये भी चिड़िया अपने अंडे नहीं सेती. गर्मी और वर्षा की नमी कई परिंदों के वंशवृद्धि का काल होता है, ये बड़े चुपके से उनके अण्डों में अपना एक-एक अंडा रख देती हैं. और फिर वह चिड़िया ही इनके बच्चों को पालती है. बाद बड़े होने पर ये अपने असली माँ-बाप से मिल जाते है.

माना जाता हैं चातक स्वाति नक्षत्र की पहली बूंद का सेवन करता है ,पर इसका कोई प्रमाण नहीं .लेकिन मैंने ये हमेशा देखा है,कि जब-जब सूरज के सामने बदली छाती है ये परिंदा  हर्षित हो पर पेड़ के ऊपर से ‘पियू-पियू..पी.. की रट लगता है, जैसे वर्षा की चाह रखता हो और मेघों को बरसने कह रहा हो ..i ये परिंदा शहर के किनारे बगीचों में गाँव के करीब बिगड़े वनों में तो देखा जाता है पर साल के सघन वन में कभी नहीं दिखा. शरदकाल इसके वापसी का समय है, सारी वर्षाऋतू जो धीमी उड़ना भरता रहा वो पक्षी अपनी उडान में परिवर्तन ले आता है ,और ऊँची उड़ान भरता दिखता है तब ये छह या आठ का समूह होता है ,इतनी ऊँची उड़ान की दिखाई भी नहीं देता और परिवार के साथ वापस चला जाता है अपने देश ,अगले साल वर्षाकाल से पहले आने के  लिए .. मैं सोचता हूँ ये परिंदा भी जानता है की मानसूनी हवा के वेग को उसके पंख न झेल सकेंगे इसलिए वो प्रजननकाल के पहले यहाँ पहुँच जाता है.और मैं जान जाता हूं कि मानसून आने वाला है, खेती के काम शुरू कर दो..! [फोटो- गूगल से साभार] 

गुरुवार, 23 मई 2013

एक अनजाना पर पहचाना पेड़,जो यादों में बसा है



हम विरोधाभास में जी रहे हैं, साल में एक दिन पर्यावरण बचाने और पेड़ लगाने की बात करते हैं पर फिर पेड़ों को भूल जाते हैं. मुझे अपने बचपन का एक पेड़ याद रहा है, शरदऋतू में इसपर रजनीगंधा से फूल झूम के खिलते और सुबह ये कुछ पीलापन लिए ये फूल पेड़ के नीचे झरे मिलते, करीब तीन इंच के खोखला डंठल जो फूल का हिस्सा और उससे जुड़ी पांच  पंखुड़ी सुबह इन फूलों को हम सब चुना करते, फूल पेड़ से जुदा होने के बाद भी मीठी खुशबू फैलाते होते. अंग्रेजों के लगाए ये दरख्त कम ही बचे हैं.
मैं आज तक इस पेड़ का सही नाम नहीं जान सका, साहित्य में इसे ‘आकाशनील/नीम’,वन अधिकारी हेमंत पांडे इस ‘अगस्त’ का और बिलासपुर के जू के करीब वनविभाग की नर्सरी में इस ‘कार्क’ बताया जाता है. नाम में क्या रखा है, इस पेड़ के गुणों पर मैं तो फ़िदा हूं .दशहरे से होली तक ये पेड़ राहगीर को मुग्ध कर सकने की क्षमता जो रखता है. शरद की चांदनी रातों में इस पेड़ की रंगत पूरे शबाब पर रहती है. दूर तक सुगंध फैली रहती है, रेलवे के स्टेडियम के पास दो पेड़ और कुछ और पेड़ बिलासपुर में शेष हैं. इसके बीज ये फल  नहीं होते .जड़ों के पास ‘पीके’ फूटते हैं और अलग लगाने पर चार-पांच साल में फूल आने के साथ पेड़ बड़ा होता जाता है.
मैंने बड़ी कोशिश की इस पेड़ के वंशवृद्धि के लिए, वनाधिकारी एसडी बड्गैया ने रेंजर नाथ को भी लगाया पर कोई कामयाबी न मिली इस बीते साल बारिश में वनविभाग की कानन पेंडारी स्थित नर्सरी गया था. बजरंग केडियाजी साथ थे, कुछ सागौन के पेड़ लिए तभी नर्सरी में तैयार इन पौधों पर पड़ी तो हैरत में आ गया ,जिस पेड़ के पौधों का मैं न तैयार करा सका वे यहाँ सैकड़ों में थे. दर नही कोई खास नही-दस रूपये का एक पौधा पता चला यहाँ कार्यरत श्री शर्मा और श्री जायसवाल ने निजी रूचि लेते हुए इनको तैयार कराया है. वहां कम करने वालों ने इसका नाम ‘कार्क’ बताया.हमने कुछ पेड़ लिए जो बड़े हो रहे हैं.
बिलासपुर हरी-भरी नगरी रही है, यहाँ लगाये नीम के पेड़ का दातून तोड़ने वाले को कलेक्टर आर.पी मंडल का झापड़ खाना पड़ा था. पर आज दशा बदल गई है.नीम के पेड़ को बचाने युवा नदी के किनारे रात दिन बैठे हैं और प्रशासन इसे काटने के लिए तुला है..ये युवक पर्यावरण से अनुराग रखते हैं.इस नई पीढ़ी को कल की फ़िक्र है. जब मैंने इनको इस सुगन्धित फूलों के पेड़ के विषय में बताया तो वे नर्सरी पहुंचे और इस विप्लुप्त हो रहे पेड़ के बड़े पैमाने में इस मानसून में लगाये जाने की संभावना उदित हो गई हैं. आप भी अपने इलाके में विलुप्त हो रहे पेड़ों को जरूर लगाइए.
 [इस पेड़ का सही नाम मुझे मिला गया है ये है-आकाशनीम [milingtonia hortensis] सटीक जानकारी देने के लिए त्रिवेदी निखलेश जी का आभार ] ये चित्र बाद 7 नवंबर 2013 को जोड़ा गया.

बुधवार, 22 मई 2013

मरती नदी की पाती पुत्रों के नाम




तिल-तिल,पल-पल कर मर रही मैं अरपा नदी हूँ. पेंड्रा का इलाका मेरा उद्गम स्थली है फिर  147 किमी का सफर करते हुए शिवनाथ नदी में मिल जाती हूँ. छतीसगढ़ की न्यायधानी बिलासपुर मेरे तट के दोनों तरफ बसी है. मेरे को नया जीवन देने अविभजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री वीरेन्द्र सकलेचा और फिर श्यामाचरण शुक्ल ने दो बार भैन्साझार परियोजना का शिलान्यास किया पर परिणाम शून्य रहा. आज में गर्मी के दिन में रेगिस्तान सी तपती और  सूखी नज़र आ रही हूँ .
पांच दशक पहले तटीय गाँव मंगला के अमरूद और सरकारी बगीचे के आम झुक-झुक कर मुझे नमन करते. गर्मी जब बढ़ने लगाती और जल प्रवाह कम होने लगता, तब किसान रेत में लौकी,तरोई,करेला,बरबटी की फसल लेते, मेरी रेत में लगी कोचाई [अरबी] दिल्ली में पसंद की जाती .शकरकंद की बेलें मेरी रेत पर बिछी रहती ,ककड़ी रात तेजी से बढ़ती तब रखवाली कर रहे किसान को उसके सूखे पत्तों में सरकने की आवाज आती. पर ये आज गुजरे सपने की बात हैं. सूरज के गर्मी से मेरी रेत जल रही है. पानी तो नाम मात्र का नहीं,धोबी बाहर कपड़े धो कर मेरी रेत में रोज सुखाते हैं .
चार दशक पहले सरकारी बगीचे और दूसरे किनारे पर बसे गाँव मंगला में कालिदास के आम के बगीचे में रहट से पानी सिंचाई के लिए निकला जाता. गले माँ घंटी बंधे सफ़ेद ऊँचे बैल कुएं के इर्द-गिर्द घूमते और पानी लगातार उलीचा जाता. बैल की मधुर घंटियों के स्वर सुबह मंदिर में बजने वाली पूजा के घंटी से मिलते लगते. दस बारह फिट गहरे कुओं से किसानों को सिंचाई के लिए पानी मिल जाता. आज किनारे की भूमि के सीने में सुराख कर दो-तीन सौ फिट से पानी निकला जा रहा है. जंगल कटाई के साथ-साथ भूजल रसातल में जा रहा है.जंगल का वितान झीना हो है और पानी के स्रोत सूखते जा रहे है. किसी को इसकी चिंता नहीं है.

मैं माँ हूँ, दोनों किनारों पर बसी अपनी संतान की प्यास बुझना मेरी ममता है ,पेंड्रा के पास शक्तिशाली पंप लगा दिए गए हैं मेरा उदगम स्रोत सूख जायेगा ये सोचा नहीं गया. एनीकट भी बने, पर हद तो न्यायधानी में पार हो गई जहाँ रेत के कारोबारी बेतरतीब रेत उत्खनन करते रहे हैं. न जाने कितने पंप मेरे गर्भ का जल उलीचने में लगे हैं. वो दिन गये जब मेरे बेटे,प्राण चड्डा,उमेश मिश्रा,किशन गुलहरे,श्याम गुलहरे ,अरविन्द दुआ,सागर,मोहन ,प्रताप यादव  अगस्त माह में पुराने पुल से बहते पानी में छलांग लगते थे और जंगल से लकड़ी बहा कर लाती थी.
दस साल पहले कलेक्टर आरपी मंडल ने शहरी इलाके में जन भागीदारी से बहाव को रोका.जफ़र अली,अनिल तिवारी, नथमल शर्मा,प्रवीण शुक्ल. सूर्यकान्त चतुर्वेदी ,सुशीलपाठक.सुनील गुप्ता,अरुणा,सत्यभामा,राजेश दुआ,सोमनाथ यादव,अंजना मुलकुल्वार.वाणी राव,सहित पूरे नगर का का स्नेह मुझे मिला. मगर जिस योजना का श्रीगणेश उन्होंने किया सरकारी हाथों में पढ़ने के बाद इस ठहरे पानी में जलकुम्भी का राज है, मेरी जमीन ‘सिम्स’ ने हथिया  ली अब इसके पीछे सड़क बनने और जमीन हड़प ली गई है. वे जानते हैं  मरती नदी है क्या कर लेगी. वे कदाचित भूल गये यही मुंबई के मीठी नदी के साथ हुआ था और जिसका प्रकोप मुंबई अब हर साल मानसून के साथ झेलती है. नगरनिगम ने हद कर रखी है शहर का गन्दला पानी के मुझ में डाला जा रहा है. कचरा भरा है, इसकी कभी सफाई नहीं की जाती.

सुना है, कोई सौ साल पुरानी योजना को फिर जीवित किया जायेगा.मुझे 'टेम्स नदी' सा बनाने की बात की जा रही है.606.43 करोड़ रूपये का अनुमोदन हो चुका है. बातें बड़ी-बड़ी मेरी जल संग्रहण क्षमता से कहीं ज्यादा लग रहीं हैं ..न जाने कब पूरी होगी ये योजना, उसकी सफलता अफलता का हिसाब बाद में फिर कभी होगा. मरती नदी को एक बार देख जाओ, हमदर्दी के कुछ बोल, बोल जाओ कुछ सुकून  मिलेगा..!

                                                                                                        [ मैं हूँ ,बिलासपुर की ‘अरपा’
                                                                                                         जो देश की नदियों से अलग नहीं ]

रविवार, 19 मई 2013

बंजर जमीं पर अब कोयल कुहु -कुहु बोलती है

बजरंग केडिया ,गाँव भरारी में अपने आम के बगीचे में ..
हरे –भरे 43 एकड़ के बगीचे की देखभाल में उम्र के 74 वसंत देख चुके बजरंग केडिया को उनकी ऊर्जा और लगन से करते देख हैरत होती है. इस बगीचे में 17 सौ आम के पेड़ों के अलावा चीकू,मुनगा अमरूद,खम्हार और बांस,नीलगिरी के पेड़ है. मई माह के इनदिनों आम के पेड़ों से ‘मीठा मेवा’ टूट रहा है. बंजर भूमि पर जो सपना उन्होंने 18 साल पहले देखा था वो साकार हो चुका है.

आम के फलों के साथ बगीचे में आई एक नन्ही परी 
मेरा और केडियाजी का नाता करीब पैंतीस साल पुराना है. मैं अपने पिताजी श्री चमनलाल चड्ढा के साथ दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित कृषि प्रदर्शनी में शिरकत करने गया था. वहां केडियाजी मिले वे तब लोकस्वर से जुड़े थे. बाद नव-भारत बिलासपुर में हमने साथ करीब नौ बरस काम या.कालान्तर वो ‘नव-भारत’ के सम्पादक बने और मैं ‘दैनिक-भास्कर’ का संपादक. दोनों को निष्ठा अपने-अपने संस्थान के साथ थी पर हमारी मैत्री बनी रही. सही अर्थों में केडियाजी और मैं  रेल की दो पांतो के समान हैं,जो साथ-साथ चलती हैं, पर मिलती कभी नहीं, विचारों के मामले में ये दशा आज भी बरकरार  है.पर मैं आम उत्पादन में उनकी मेहनत, लगन और दूरदर्शिता का लोहा मानता हूं.
आम तोड़ने के एक पुरानी तकनीक आज भी बरक़रार है.
प्रख्यात कृषि विज्ञानी डा.रामलाल कश्यप ने सबसे पहले ये जाना कि, छतीसगढ़ के बिलासपुर की आबो-हवा आम उत्पादन के माकूल है. उन्होंने केडियाजी को प्रेरित किया.और अपनी फिर चुन-चुन के इस भूमि में दशहरी,लंगड़ा,हाफूजा [अलफांसो] आम्रपाली जैसे आम के पौधे गाँव भरारी के इस बगीचे में लगाये. बगीचे की फेंसिंग कर बंदरों से बचाव के लिए कुत्ते पाले गए. आज इस बगीचे को केडियाजी के माता स्वर्गीय ‘जड़िया’ के नाम से जाना जाता है. एक साल में तेरह लाख की रिकार्ड आय ये बगीचा दे चुका है.

टूट कर आए आम पेकिंग के लिए 
यहाँ के आबो-हवा में आम की फसल यूपी से एक माह पहले मीठी रसली हो जाती है. इसलिए मुनाफा भी चौखा होता है. उलटे बांस बरेली को की भांति इन दिनों बिलासपुर का आम बनारस भी निर्यात होता है. इतनी पैदावार लेनी है, तो पेड़ों की सेवा भी बच्चों के समान करनी होती है .इसके लिए केंचुआ खाद का बड़े पैमाने में बगीचे में ही उत्पादन होता है. अवधारणा है कि संगीत का असर पेड़ों पर होता है, इसलिए फार्म हॉउस में इसका इंतजाम किया गया है. पेड़ों पर कीटनाशक का छिड़काव,के अलावा सिंचाई के लिए तीन पंप और पाईप का पूरा जाल हर तरह बिछा है. इन सब कामों में दो दर्जन मजदूरों को रोजगार मिला है.
बिलासपुर से चौबीस किलोमीटर दूर इस बगीचे की सफलता के बाद इस किसानों ने प्रेरित हो कर आम के बगीचे लगा लिए हैं. दिसम्बर माह में आम के बौर आने लगते हैं और जून के पहले सप्ताह तक आम की फसल पैक कर मिनी ट्रक से खेप में बाज़ार पहुँच जाती है. बौर और आम तोड़ाई के बीच वसंत में तीन-चार बार आंधी-बारिश से अमियाँ टूट कर बिखर जाती है. केडियाजी कहते हैं ,आम के पेड़ को ये भी कुदरत की देन है,अगर ये न हो तो फल के भार से नमन करती डालियाँ ही बाद में टूट कर बिखर जाएगी.गिरी इन अमियों को बाज़ार में बेच दिया जाता है या अमचूर बना लिया जाता है.इसे कहते हैं- 'आम के आम अमचूर के दाम'.
आम को फलों का राजा माना जाता है. पर अलफांसो तो आमों में राजा है. बिलासपुर का अल्फ़ान्सो रत्नागिरी के अल्फ़ान्सो से कम नहीं ,मेरे समधिन आशा महाडिक मेरे लिए मुम्बई से अल्फ़ान्सो की पेटी लाईं तो हमने या मिलन कर देखा-परखा..ये बिलासपुर की आबोहवा में  हर साल फलने वाला आम के रूप में चिन्हित किया गया है. कृषि विभाग को इन पेड़ों से और पेड़ तैयार करना चाहिए. इन्सान की मेहनत बंजरभूमि में फल खिला सकती है ये आम्र-वाटिका इसकी मिसाल है.कभी जहाँ वीरना था. आज वहां कोयल की कुहु -कुहु  सुनाई देती है.जबकि इसके इर्द-गिर्द की भूमि अभी बंजर पड़ी है. ये बगीचा अन्य किसानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है,किसान यहाँ पहुँच कर आम पौधे लगाने की जानकारी और केंचुआ खाद बनाने के तरीके  से परिचित होते है.
कुछ और -
इस आम के बगीचे के पश्चिम में अलफांसो के करीब दस पेड़ ऐसे हैं जो छतीसगढ़ में आम की पैदावार में  अहम  भूमिका निभा सकते हैं .में इस बगीचे में शुरू से जाता रहा हूँ. आम की फसल में साल-दर साल आफ सीजन आता है ,याने आम कम पैदावार होता है,पर इन पेड़ों में ये नहीं .ये हर साल झूम के फलते हैं. याने उनको यहाँ का मौसम अनुकूल मिला है अथवा वे  इस वातावरण में ढल गये हैं . बस इसको 'मदर' पेड़ मान कर गुटी या अन्य पद्धति से नए पेड़ बड़ी संख्या में तैयार करते जाना है , अब तक ये काम शुरू नहीं हो पाया है.
                                     


शुक्रवार, 17 मई 2013

'मालिक' नहीं बने तेंदूपत्ता मजदूर..!




 राजनेता भी जनता के साथ खूब मजाक करते हैं और भोली जनता उनके इन फंडे को समझ नहीं पाती.गरीबी हटाओ,मंदिर वहीँ बनायेंगे,सौ दिन में महंगाई कम कर देंगे.फील गुड’ जाने क्या-क्या पर जिस मजाक के बारे में लिख रहा हूँ वो है, ‘तेंदूपत्ता मजदूर [ बीडी पत्ता मजदूर ] मालिक बनेंगे.

अर्जुनसिंहजी ने 1988 में मध्यप्रदेश की तीसरी बार कमान संभाली. मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा को केंद्र में स्वास्थ्य मंत्री बना दिया गया था.अब मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के लिए अर्जुनसिंह जी को म,प्र. की किसी विधानसभा सीट से चुनाव जीत कर विधायक बनाना था. कांग्रेस की परम्परागत सीट खरसिया उनके विश्वासपात्र लक्ष्मी पटेल ने खाली कर दी.भाजपा के दबंग प्रत्याशी दिलीपसिंह जूदेव मैदान में थे, इस चुनाव में भाजपा के लखीराम अग्रवाल और उनके साथियों ने ऐसी रणनीति बनाई की अर्जुनसिंह बड़ी मुश्किल आठ-नौ हजार से जीत सके. उन्होंने विजय जुलूस भी न निकला.
लखीरामजी तेंदूपत्ता के जाने-माने व्यापारी रहे .उनके साथियों ने इस चुनाव में पैसे की कोई कमी न होने दी थी. चुनाव पश्चात् अर्जुन सिंह खुश न थे, उनके दिमाग में कुछ और चला रहा था. उन्होंने बिलासपुर में पत्रकारवार्ता में साफ कहा कि अगले साल तेंदूपत्ता नीति में तब्दीली कर दी जाएगी ,बिचोलियों को जंगल में घुसने नहीं दिया जायेगा. इस वार्ता में नवभारत के वरिष्ठ पत्रकार रामगोपाल श्रीवास्तव ने उतराभाषी सवाल किया,’क्या इसे सहकारिता के माध्यम से ये कार्य होगा. रामगोपालजी सहकारिता से जानकार थे. अर्जुनसिंह जी को बात जमी और कहा , इस सम्बन्ध में नीति बनाई जाएगी.

 अर्जुनसिंह के भोपाल पहुँचते ही तेंदूपत्ते का तूफान खड़ा हो गया.’बिचोलियों’ के हाथ से तेंदूपत्ते का कारोबार जाता रहा.अजीतजोगी खरसिया उपचुनाव बाद की नई नीति को प्रभावी करने में लग गये.पूरा प्रशासकीय अमला अगले साल तेंदूपत्ता संग्रहण में लग गया. ‘मजदूर को मालिक’ का नारा सामने आ चुका था.अर्जुनसिंह जब बिलासपुर आते तो लखीरामजी का नाम न लेते उन्हें ‘सेठ’ कहते.बाद श्री सिंह ने ‘सेठ’ शब्द वापस ले लिया. उधर तेंदूपत्ता लाबी भी सामने कमर कस कर आई,अर्जुनसिंह केंद्र चले गये और मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री बने.पर इस राजीतिक उठापटक के बावजूद पत्ते की नीति नहीं बदली.अब मजदूर को मालिक बनाने की कमान वोरा के पास थी.
तेंदूपत्ता हाथ के आकार का खरीदा गया, मजदूरी बढ़ा दी गई थी,फिर मजदूर को मालिक बनाने तेंदूपत्ता के लाभांश [बोनस] का हकदार इन मजदूरों को बना दिया जाने गया. हर साल बिके पत्ते पर मिले लाभ का मजदूरों को बोनस दिया जाता है. मई 2013 से विकास यात्रा के साथ रमन सिंह ने बोनस वितरण शुरू किया है जो तेंदूपत्ता संग्रहण का कार्य में अब तक चल रहा है. ये बीते साल तेंदूपत्ता संग्रहण के लाभ का अस्सी प्रतिशत है..तेंदूपत्ते को ‘हरा सोना’ कहा जाता है. इस साल बोनस को हरे सोने में ‘सुहागा’ का नाम दिया गया है.

पत्ते के तूफान को लगभग ढाई दशक होने वाले हैं . इस बीच छतीसगढ़ राज्य बन गया पर क्या तेंदूपत्ता जमा करने वाला मजदूर सही अर्थों में मालिक बना, अथवा  उसके साथ मजाक हुआ और वो छला गया. ये विचारणीय है.ये मजदूर तपती गर्मी में पसीना बहते हुए तेंदूपत्ता खरीदी स्थल तक लाते हैं. इसके उपरांत भी मुझे नहीं लगता कि इनकी मालीदशा में भी कोई खास तब्दीली आई है.जबकि मजदूरी और बोनस की राशि बढ़ती जा रही है.

तेन्दूपत्ता संग्रहण का काम बमुश्किल तीस-चालीस दिन होता है. इतने कम दिन के काम बाद इनको दूजे काम की तलाश करनी होती है.प्रदेश में इसकी संख्या 13 लाख 77 हजार परिवार दर्ज है.इनमें अधिकांश अन्त्योदय और प्राथमिक परिवार है, याने एक रूपये या दो रूपये किलो खाद्यान्न मिलाता होगा.कई अन्य योजनागत कार्यो में इन मजदूरों को कम मिलाता है ,तो फिर इनके जीवन स्तर में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया. इस साल इन मजदूरों को 312 करोड़ बोनस वितरित होगा.
मजदूर दशा यथावत क्यों हैं -

बोनस की रकम मजदूर तक नहीं पहुँचती -जो मजदूर तेंदूपत्ता  संग्रहण करते है,वे अशिक्षित हैं और ‘बोनस’ की समझ नही.पत्ता खरीदी के समय कई का नाम नहीं भरा जाता,उनके बदले परिचितों,रिश्तेदारों के नाम से खरीदी बताई जाती है. बोनस हक़दार तक पहुंचा, इसकी जाँच ईमानदारी से होती रहनी चाहिए.! पता लगाना होगा जिन समितियों के माध्यम बोनस दिया गया उनके सदस्य सही में कितने हैं.नगद न पांच हज़ार तक के बियरर चेक की राशि किसे मिली.
पत्ते का तूफान अब थम गया है. इस बवंडर थमने के बाद सारी गर्द बैठ गई है,साफ है ये एक वक्ती नारा था, नहीं तो मजदूर पसीना बहा कर पत्ता नहीं तोड़ता और कंवर से मीलों दूर बोझा उठा कर नहीं लाता,.यदि मालिक को बोनस का फंडा न होता तो पत्ता तोड़ने वाले को उसी समय बोनस की संभावित राशि  दी जाती तो मजदूर को अधिक पैसा मिलाता वहीँ घपले के नया दरवाजा नहीं खुलता..!

कुछ और -
# कलेक्टर साहब के साथ जंगल तेंदूपत्ता के कार्यो का जायजा लेने पत्रकारों का दल जाता.हर पूरा सरकारी अमला पत्ता खरीदी कार्यो में लगा रहता. वाहनों में लिखा होता ‘तेंदूपत्ता आवश्यक’.दफ्तर खाली हो जाते.

# तेंदूपत्ता के कारोबार से अमीर बने मेरे एक दोस्त ने तेंदू का हरा फल न देखा था,बंगले में वो पेड़ पर लगे फल को वो न पहचान सका.

# एक बार मैंने तेंदूपत्ता मजदूर को पेप्सी के एक लीटर की खाली बाटल दी,वो बड़ी माँगा,मैंने पूछा तो वो वोला मई में पसीना खूब निकलता है. पानी के लिए बड़ी बोतल ही ठीक है.

#  तेन्दूपत्ता मजदूर तो 'मस्त मौला 'है. वो हर गम धुएँ में उड़ाए चल रहा  है.
     

मंगलवार, 14 मई 2013

अखबार मार्केटिंग , कमउम्र के किशोर ..

आज दोपहर दिल पसीज गया, दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी, मैंने सोचा बूढ़ा डाकिया आया होगा, पर अख़बार लिए और पीठ में पिठ्ठू; एक चौदह-पन्द्रह साल का लड़का धूप में तपा खड़ा था, उसने मुझे बताया कि उनका अख़बार नई स्कीम दे रहा है, मैंने उसे अंदर बुला कर, कृष्णाजी से रसना शर्बत लाने कहा,.. वो बता रहा था कि, ग्राहक बने तो वो अभी क्या देगा, इनामी योजना में आगे क्या है, इस प्रतिष्ठित अख़बार से मैं परिचित था. मैंने संपादक का नाम पूछा तो उसे नहीं पता था. पिठ्ठू में नए ग्राहकों के देने गिफ्ट लदे थे, जिसे उस किशोर ने अंत तक नहीं उतरा उम्र पूछे जाने पर वो सतर्क हो गया.., यदि अख़बार ने पढ़ने योग्य सामग्री है, तो फिर स्कीम किसी की बाजारू प्रोडक्ट की भांति क्या जरूरत.? और फिर सस्ते किशोर मजदूरों को धूप में पीठ पर स्कीम का सामान लादकर रवाना करना,क्या ये उचित है ..? 

किस मोड़ पर आ गई है अख़बार के लिए मार्केटिग.. अख़बार में सस्ते 'मजदूर' न रख योग्य पत्रकारों को जुटाओ ,पाठक आपका अख़बार खुद खोजगा ..,अगर समाचारों में दम नहीं,तो कब तक गिफ्ट और इनामी योजना के दम पर अख़बार बेचोगे .? फिर जिस बाल मजदूरी की खिलाफत की जानी चाहिए उस तबके को धूप में मार्केटिग के किया भेजा जा रहा है. ..बलिहारी हो आपकी ..!

[फोटो गूगल से साभार ]

गुरुवार, 9 मई 2013

सर्कस की लड़की और अल्प वेतनभोगी पत्रकारों की दशा


सर्कस का सूर्यास्त हो रहा था, तभी बिलासपुर में एक पंडाल लग गया. जिस प्रकार मानस में तुलसी ने शुरुआत में खल पूजन किया है,ताकि विघ्न पहुँचने वाले उनसे प्रसन्न रहें, इस प्रकार सर्कस के मालिक ने भी पहला शो उनके नाम कर दिया जो उसके इस अनुष्ठान में विघ्न पंहुचा सकते थे. प्रेस को भी शायद इसलिए फ्री पास भेजा गया था. मैं भी सर्कस देखने पत्रकार साथियों के साथ गया.

जानवरों से मुझे अनुराग रहा. देर रात में और मेरी धर्मपत्नी कृष्णा सर्कस के बाहर बंधे हाथी के शावक को केले खिलाने जाते थे .फिर एक दिन सुबह की बैठक में केशव शुक्ल जी के कहा ‘आप सर्कस का समाचार कवर कीजिये. मैं भी आज साथ कैमरा लेकर चलूँगा. सर्कस के मालिक ने समय दिया ‘दोपहर तीन बजे आप लोग आ जाएं'.सर्कस का मालिक वन्यजीवों के सर्कस में लगने वाली रोक से परेशान था. केशवजी जानकारी ले रहे थे, इस बुजुर्ग का अनुभव और उससे मिले इस ज्ञानं जिसे मैं इस ब्लाग में आपसे साँझा करने जा रहा हूं –

दोपहर का शो खत्म हुआ था] मैंने कहा ‘कुछ कलाकारों से भी चर्चा कर ली जाए. सर्कस मालिक ने एक शो से वापस जा रही युवा बाला को बुलाया. वो गाउन पहने अपने काकातुआ तोतों के साथ दो चली आई, केशव शुक्ल ने उससे कुछ सवाल पूछे .फिर उसकी फोटो लेनी थी. जैसे ही उसे फोटो के लिए मैंने कहा ग, उसने एक झटके में गाउन उतरा दिया. अब वो टू पीस में थी. दोनों अधोवस्त्रों को पूरीतरह नग-नागिनों से जड़ा गया था. इतने करीब इस सुंदरी को देख में हतप्रभ रह गया. फोटो तो लेली. कुछ देर बाद जब वो चली गई तब में सर्कस मालिक से पूछा इस कलाकार को मासिक वेतन कितना मिलता है. जवाब मिला- ‘हजार रूपये महीना और सर्कस में बना भोजन....रहती कहाँ हैं ?- टेंट में, मैंने देखा कुछ दलदली जमीन पर टेंट लगे थे..!मैंने फिर पूछा- सर्कस में जान का जोखिम,इतने कम वेतन मैं .. ये यहाँ से चलीं क्यों नहीं जातीं ? उसने कहा- एक सर्कस से जाती हैं, तो दूसरी इसी वेतन पर काम करने किसी दूसरी सर्कस से हमारी सर्कस में चली आती है.पर ऐसा क्यों ? मैंने जिज्ञासा से पूछा- ‘जवाब मिला इनको लाईट में रहने की आदत हो गई है, क्योंकि अपने काम की तारीफ में मिली तालियाँ इन्हें पसंद हैं’’. वो अपनी बात खत्म कर चुका था...पर मैं अशांत हो गया ..सोच रहा था, यही हाल बड़ी संख्या में उन पत्रकारों का है जो कम वेतन में जान जोखिम में डालते हैं और एक प्रेस से दूसरी में काम करते हैं, बस पत्रकारिता की चमक और उनके लेखन की झूठी तारीफ के मोहपाश में जकड़े हैं. शायद वे भूले रहते हैं कि, जो सलाम उनको किया जा रहा है वो दरअसल उनको नहीं उनकी कुर्सी को है.!! आंचलिकपत्रकारों के हालात तो और खस्ता हैं ..!

‘सौतेली बिजली’ और ‘सगी माँ बिजली:
सर्कस के मालिक को घाट-घाट का अनुभव था, अगला शो शुरू होने से पहले जो जनरेटर शुरू हुआ है जो पूरे शो में चल था, मैंने पूछा जब बिजली है तो ये जनरेटर क्यों चल रहा है, इसे बंद कर दो.. तब सर्कस के मालिक ने कहा- मंडल की बिजली ‘सौतेली माँ’ है और ये जनरेटर की बिजली ‘सगी माँ’. फिर उन्होंने बात साफ की,बोले’ मानो बाघ का शो चल रहा हो या लड़की रस्सी पर चल रही हो और मंडल की बिजली अचानक धोखा दे जाए ..? तो बड़ी दुर्धटना हो जाएगी ,पर जनरेटर की बिजली अचानक गुल नहीं होती पहले जनरेटर कुछ फट-फिट सी अजीब आवाज करता है. हम सावधान हो जाते हैं .इसकी बिजली सगी माँ है, ये कभी हमें धोखा नहीं देती .. मंडल की बिजली बंद हो तब भी शो इससे चलता रहता है..!

[फोटो गूगल से साभर]

सोमवार, 6 मई 2013

संस्कृति के वाहक जंगल के हाट बाज़ार




जंगल के हाट-बाजार आदिवासियों की जान हैं, बस्तर से सरगुजा तक इन्होंने मुझे अपनी और खींचा है. भोले-भाले वनवासियों की इस दुनिया में झांकने मैंने वर्षो से प्रयास किया है, पर ये प्यास आज तक नहीं बुझी. तीन दशक में हाट-बाज़ार की दुनिया से नमक विनिमय की इकाई नहीं रहा और कई हाट बाजार में चबूतरे बना दिए हैं, जहाँ संचार के साधन नहीं, और रिश्तों की डोर अभी मजबूत है, वहां ये बाजार मेल-मिलाप और संस्कृति के वाहक बने हैं.

बस्तर :-
सन 1993 के आसपास मैं बस्तर गया था, मेरे बड़े भाई समान मित्र बसंत अवस्थी, हरदिल अज़ीज़ इकबाल हम सब नवभारत पत्र समूह के लिए काम करते थे. मुझे फोटोग्राफी का जुनून था. बस्तर की यादों को कैद करने तस्वीर ले रहा था. सिर पर बोझा उठाये आदिवासी महिलाएं कतारबद्ध सड़क पार कर रहीं थी. मैं फोटो लेने लगा. एक महिला कच्चे आमों से भरी टोकरी सिर से उतारी और पानी पीने लगी. बसंतजी ने मुझसे कहा-पूछो आम कितने के होंगे, उसने कहा, बीस रूपये के. फिर कहा- पूछो तीस में दोगी. जवाब मिला नहीं..! मैं हैरत में पड़ गया. बसंत भाई ने मुझे जानकारी दी ये हाट बाजार में जाने निकली है, वहां घंटों आम बेचेगी, थकी है, धूप सहेगी, पर इस बीच अपने परिचितों से मिलेगी, उनके दुःख-सुख पूछेगी, मोल-भाव का आनंद लेगी, यदि आम यहीं एक मुश्त बेच देती, तो वो इससे वंचित हो जाती, इसलिए अधिक मोल पर भी आम नही दिए. वाह, ऐसा था, बस्तरिया बसंत भाई का पैना नजरिया.

सल्फी पियो पर जरा संभल के सल्फी का नशा दोपहर पीने पर तेज होता है मुझे ये ध्यान न रहा, दंतेवाड़ा में सल्फी भरा, एक जग रुक-रुक कर मैं पी गया. फिर जगदलपुर वापसी के दौरान सड़क से कुछ दूर हट कर सुंदर बाज़ार भरा देखा. बाजार की रौनक देख सल्फी के नशे पर फोटोग्राफी का शौक भारी हो गया, कार को बाजार के करीब तक ले जाने के लिए कहा- कैमरा पेंटेक्स का लेटेस्ट था और नशा सिर चढ़ के बोल रहा था. मुझे याद है सारे वनवासी बड़े भद्र थे, मैंने अपनी और से गुस्ताखी की हद पार करने में कोई कमी न की, नशीले पदार्थ विक्रय करने वाली को ‘साकी’ कहता तो किसी को फोटो कैसे लेनी है, ये बताता. वनवासियों को मेरे साथियों ने बता दिया था, ’बंदा ये शरीफ है... कुछ ज्यादा सल्फी पी गया है’. वापस जगदलपुर में एक घंटा शावर के नीचे नहाया तब कहीं नशा कम हुआ, फिर तो मैंने सल्फी से तौबा कर ली. बस्तर तो गया पर फिर कभी सल्फी न पी, धन्य हैं ये वनवासी और उनकी समझदारी, उनका धीरज और मेहमाननवाजी, जो उनकी परम्परा और संस्कृति का हिस्सा है. इसलिए मैं महफूज़ रहा.

बैगा चक :-
बैगचक में जंगल के बीच गाँव ‘चाडा’, यहाँ के बाज़ार यहाँ की शोभा निराली है, ‘वेरियर एल्विन’ का ये कार्यक्षेत्र रहा है. बैगा आदिवासी बालाओं की पसंद ‘लाल मूंगे’ की लड़ीदार माला. एक दर्जन पहने के बाद भी उनका मन नहीं भरता, ये नकली मूंगे की माला लाल परिधान, लकड़ी की कंघी,हाट में उनकी रंगत, उनके गोदना का कोई सानी नहीं. मुझे समझ आ गया कि क्यों बैगाचक में वेरियर एल्विन दिल दे बैठा था और एक बैगा युवती से विवाह रचा लिया. बाजार में कुछ गोरी बैगिन जांघ भर गोदना कराके जब आती दिखती हैं, तब लगता है कोई बाला जींस पहने हुए हैं. बाजार में वनोपज का विक्रय और तेल नमक, सूखी मछली, झींगा. कपड़े रूप सज्जा के सामान की खरीदी खूब होती. बाजार के किसी कोने में गोदारिन बालाओं के माथे में v सा गोदना करती है या जांग बांह पर. गोदना वो जेवर है जो मरने के बाद साथ जाता है, दूसरे जेवर नहीं. ये मान्यता सदियों से बनी है.

चांदो :-
सरगुजा की सरहद पर चन्दो अब नक्सल प्रभावित इलाका है,सन 1993 के आसपास नवभारत के सरगुजा जिला प्रतिनिधि सुधीर पाण्डेय के साथ इस इलाके को करीब से देखने का अवसर मिला, हम सुबह जशवंतपुर में पूर्व केंद्रीय मंत्री लरंग साय के घर पहुंचे, वो खेत में नागर चलते मिले, जितना कीचड़ नागर के भैंसों पर लगा था, उतना उन पर. चावल की शराब ‘हडिया’ और सेम बीज का नमकदार चखना, स्वागत में सायजी ने दी जिद कर हमें दिया तो मैंने भी प्रसाद मान स्वीकारा. हडिया को सुधीर बस्तर की सल्फी के समतुल्य बताता है. ये चावल से बनती है, जबकि सल्फी पेड़ में हांड़ी बांध कर एकत्र की जाती है. हम सब जब चांदो पहुंचे तो धूप तेज हो गई थी, पर बाजार पूरी रंगत में था इस इलाके में कंवर और उरांव अधिक हैं. बाजार में कई पुरुष लंगोटी में और औरतों ने साड़ी पहनी थी पर ब्लाउज का प्रचलन कम था. महुआ, चिरौंजी जैसी वनोपज और मुसली, नागरमोथा का विक्रय हो रहा था और नमक, केरोसिन या कपड़े, चूड़ियाँ और नकली चाँदी के गहनों का विक्रय, नमक भी तब विनिमय की इकाई में प्रचलित था. दूर पेड़ों की छाया में बैठे लोग सुख-दुःख की बात करते विश्राम कर रहे थे. चांदों के इस छोटे से बाज़ार को मैंने फोटोग्राफी के अनुकूल पाया और धूप में फोटो ले रहा था तभी एक फारेस्ट गार्ड ने मुझे आ कर कहा- साहब बुला रहे हैं, पल भर के लिए में समझ ने सका कौन होगा जो इस सुदूर इलाके में मुझे पहचानता है. फिर देख बाज़ार से कुछ दूर एक मकान में वन विभाग के बड़गैया जी थे जो उस समय एसडीओ फारेस्ट थे. बड़ा भला लगा. जो कुछ खाना बना था सबने भोजन कर तृप्ति पाई..दाने-दाने पर जो लिखा है ऊपर ने खाने वाले का नाम ..शायद इसको ही कहते हैं.

हाट बाज़ार के दिन अब सरकारी राशन ..! हाट बाजार में कानून व्यवस्था बनी रहती थी अब तो लाल शोले बस्तर के बाजार में फूट पड़ते हैं. ये दुखद है इसके बावजूद इसकी मौलिकता में कोई अंतर नहीं आया. जब से सस्ता अनाज योजना प्रभावी हुई ,साप्ताहिक बाजार के दिन अनाज भी वनवासियों को मिलने लगा है, मैं सोचता हूँ अगर ये हाट बाजार न होते तो अनाज वितरण व्यवस्था कमजोर ही होती ..अब एक साथ वनवासी बाज़ार के दिन पहुंचाते हैं तो उनका दबाव इस वितरण व्यवस्था पर बना रहता है..! ये हाट-बाजार, मड़ई आने वाली पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी के रिश्तों से जोड़े रहते हैं,यहाँ नए नाते बनते है और सम्यता संस्कृति पनपती एक कदम आगे बढ़ते जा रही है, जिसमें झूठ, वादाखिलाफी, फरेब की कोई जगह नहीं है.

[दो फोटो मेरी एक गूगल से]

बुधवार, 1 मई 2013

रमता जोगी,अजीत जोगी और मेरी यादें ..



अजीत जोगी सांसद थे और मैं दैनिक भास्कर में सम्पादक पर हमारे सम्बन्ध दोस्त तो नहीं साथी के बन गए. पहले-पहल अनिल टाह की वजह मैं जोगीजी के सम्पर्क में आया, जब उन्होने माँ दंतेश्वरी बस्तर से माँ महामाया[रतनपुर] तक की सड़क को पग-पग नापा था. इस पदयात्रा मैं और श्री राम गोपाल श्रीवास्तवजी भी तीन-चार बार राह में शामिल हुए. जब हम भिलाई में उनसे मिले तबतक निरंतर चलने के कारण उनके पैर में आलू सरीखे छाले पड़ चुके थे. इन दिनों तक मैं नवभारत बिलासपुर के लिए काम करता था. भिलाई के नवभारत प्रतिनिधि शक्ति प्रकाशजी से मैं मिला और ये जानकारी दी. ये उनका कार्यक्षेत्र था, उनने कहा- ‘आप आये हो तो ये खबर मेरी और से नवभारत में कवर क़र दो. बिलासपुर लौटने के पहले मैंने खबर रायपुर नवभारत प्रेस में दी और अगले दिन सचित्र प्रकाशित हो गई. 

अजीत जोगी जब बिलासपुर आते विपिन भाई मेहता के निवास में रुकते, वहीँ पत्रकार वार्ता होती,मैं भी वहां जाता,विपिन भाई के धर्मपत्नी सुधा बेन श्रीकृष्ण की पुजारिन हैं ,मैं उनको ‘मीरा बेन’ कहता तब उनका कोई भाई यहाँ न रहता रहा तो ये कमी मैंने पूरी की, हम भाई-बहन हो गए. उनकी सूमो में साथ घूमने जाते, अजीत जोगी और महेता परिवार, हम सब चितुरगढ़ की पहाड़ी पर देवी दर्शन करने भी गए.लम्बी चढ़ाई श्रीजोगी ने पहले पूरी की थी. ये वो काल था जब छतीसगढ़ राज्य का बनाना तय हो चुका था, जोगीजी से मेरी बात होती रहती.मैं मप्र वाइल्ड लाइफ बोर्ड का मेम्बर था.जोगीजी के साले साहब रत्नेशजी वनमंत्री बने, तब मेरी उनसे भी पहचान हो गई एक उन्होंने रानी दुर्गावती सेचुरी में हमें बुलाया और दो तीन दिन सेंचुरी दिखाई. वे बड़े नेक दिल इंसान थे.जिप्सी जब वे जंगल में चलाते तो घाट पर सिगरेट पिछली सीट पर बैठे गाँव वाले को दे देते वो भी दो कश खींच लेता .! आखिर वो शुभ घड़ी आई और छतीसगढ़ राज्य का निर्माण हो गया, राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बनाने का सौभाग्य श्री जोगी को मिला. अब वो व्यस्त थे और मै अपने काम में लग गया.फिर कम ही मुलाकात होती.

जोगीजी और अमरकंटक के कल्याण बाबा :-

अमरकंटक में कल्याण सेवा आश्रम के तपस्वी बाबा कल्याण दास और जोगी जी के मधुर सम्बन्ध रहे हैं .जोगीजी ने मुझे बताया कि जब वे शहडोल में कलेक्टर थे. कबीर चबूतरा के आसपास डकैती पड़ी एसपी के साथ वे भी अपने गृहक्षेत्र आ गए, एसपी विवेचना में लग गए. कलेक्टर साहब आयें हैं ये जान पटवारी भागा आया. बातचीत में पटवारी ने बताया, अमरकंटक में कोई तपस्वी बाबा घुनी जमाए हैं. विवेचना में देर हो रही थी, शाम हो गई तब तय हुआ की रात अमरकंटक में गुजारी जाये, मौसम बिगड़ रहा था, तेज बारिश के साथ ओले गिरने लगे जब अमरकंटक पहुंचे तो जीप की रौशनी में देखा [तब कलेक्टर को जीप मिलती थी] कोई साधू धुनी लगाये बैठा था, ओलों के मार से चेहरा बचाने उसने जटा सामने कर ली थी.अजीत जोगी ने आगे बताया- मैं सुबह उठा तो ये सोचा कि अगर तूफान ओले का बाद साधू वहाँ मिला तो उसे मुलाकात करूँगा. सुबह जब पहुंचा तो बुझी धुनी को बाबाजी फिर प्रज्ज्वलित करने की चेष्टा कर रहे थे. तब मैंने बाबाजी से निवेदन किया की अमरकंटक को आपकी जरूरत है, आप यहाँ रुकें. मैंने वांछित जमीन बाबाजी को देने का आवेदन ले कर उन्हें मौके पर ही भूमि आवंटित कर दी. जोगीजी की इस बात की पुष्टि मेरे पूछे जाने पर बाद में कल्याण बाबा ने की. 

राजनीति ऐसी की विरोधी के पैरों की जमीं निकल जाए और उसे पता भी न लगे ..!

उनकी इच्छाशक्ति का लोहा विरोधी भी मानते हैं ,मैं उनके राजनीतिक चातुर्य को बयां कर रहा हूँ, बात उन दिनों की है जब अजीतजोगी मुख्यमंत्री बन चुके थे पर विधायक बनाने चुनाव जीतना था.सबकी नजर लगी थी की जोगीजी किस सीट से उपचुनाव लड़ते हैं. मैं दैनिक भास्कर में सम्पादक था, हमें पता चला की मरवाही सीट भाजपा के विधायक रामदयाल उइके ने उनके लिए खाली कर दी है, पर जब ये समाचार प्रकाशित हुआ, तो भाजपा के नेताओं को यकीन न हुआ वे इसका खंडन के लिए पहुंचे, उनका पक्ष प्रकाशित भी कर दिया गया. फिर रामदयाल उइके की सुरक्षा कोई दूजा कारण बता बढ़ा दी गई, ये हमें अपनी खबर की पुष्टि लगी, [ताकि कोई भाजपा नेता उसे फिर वापस न ला सके और हर खबर इन जवानों से जोगीजी तक मिले,]अब एक बार फिर खबर छापी गई कि उइके जोगी के लिए सीट छोड़ चुके हैं.
इस खबर के बाद भी भाजपा के नेताओं को विश्वास न उइके उनका साथ छोड़ चुका है फिर दोपहर भाजपा के संगठन मंत्री रामप्रताप सिंह, अमर अग्रवाल, बेनी गुप्ता ने तय किया की पेंड्रारोड में उइके का निवास है वहां चलके वस्तुगत स्थिति से वाकिफ होते हैं. छतीसगढ विधान सभा के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल इन दिनों अमरकंटक गए हुए थे. राह में भाजपा इन नेताओं ने मुझे भी कार में ले लिया. संध्या सब केवची में धरमू के होटल पर रुके थे तभी विधानसभा अध्यक्ष श्री शुक्ल की कारों का काफिला अमरकंटक से पेंड्रारोड जाते दिखा, हम सब अपनी कार में उनके पीछे हो लिए. पेंड्रा रेस्ट हॉउस में हमारी मुलाकात शुक्लजी से हुई ,शायद वे समझ गए हमारा आने का मकसद ,मैंने कहा- आज एक ही सवाल पूछना है, क्या विधायक रामदायल उइके ने पद से स्तीफा दे दिया है.? उन्होंने कहा, हाँ-मैंने उसे स्वीकार कर लिया है. सबसे ज्यादा सदमा रामप्रताप सिंह को लगा. बाकी भी हतप्रभ रह गए .उनके पैरों से मानो जमीन ही निकल गई हो जैसे. रामप्रताप सिंह ने पता किया तो पेंड्रा में भाजपा के कार्यकर्ताओं ने बताया, राम दयाल उइके बस्ती-बगरा भाजपा की बैठक लेने गये हैं. वो कड़ाके की ठंडी रात थी. रामप्रताप सिंह ने कहा, उसके आने की प्रतीक्षा करेंगे मध्य रात्रि उइके जी भाजपा की सभा ले कर वापस आए तब राम प्रताप सिंह ने उइके को उसके घर में खूब फटकारा . पर अब उइके जोगी का हो चुका था.