शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

पेड न्यूज का मुद्दा, दैनिक भास्कर और पत्रिका..


पांच राज्यों के नवंबर-दिसम्बर में होने वाले विधानसभा के चुनाव में आयोग की निगाह मीडिया की पेड न्यूज पर रहेगी. पेड न्यूज एक ऐसा गोरखधंधा है, जिसमें पाठक को लगता है कि वो अख़बार में चुनावी समाचार अथवा विश्लेष्ण पढ़ रहा है पर दरअसल वो खबर नहीं, विज्ञापन पढ़ रहा होता है, जिससे उनके दिमाग में या बैठा जाता है कि कौंन सी पार्टी या कौन सा प्रत्याशी चुनाव जीत रहा है. फिर भला हारने वाले को कौन मत दे कर ख़राब करना चाहेगा..!

अख़बारों की प्रतिस्पर्धा कोई लुकी-छिपी बात नहीं, दैनिक भास्कर ने पहले पेजकी जैकेट टाप में 
प्रकाशित किया ‘‘विधानसभा चुनाव, दैनिकभास्कर में पेड न्यूज नहीं’’ साथ पाठकों से निवेदन किया है कि यदि प्रकशित किसी खबर पर लगे की भास्कर स्थिति के विपरीत जा रहा है, तो जरूर बताये''.
अगले दिन ‘पत्रिका’ के पहले पेज पर प्रकाशित हुआ, ‘‘वो पेड न्यूज से कमाते हैं, हम खबर की कीमत चुकाते हैं.’जाहिर था बिना नाम दिए ये अख़बार पत्रिका किसी के लिए कह रहा है.फिर अगले दिन ‘पत्रिका’ ने प्रकाशित किया ‘’हमें बताएं जब कोई अख़बार के पेड न्यूज का व्यापार..!

अभी छतीसगढ़ में प्रत्याशियों ने मार्चा नहीं खोला पर अख़बार आमने-सामने होने लगे. मीडिया की छवि पाठकों के बीच अच्छी रही है और वो बनी रहे सभी चाहते हैं.  मीडिया प्रत्याशियों के चुनावी विज्ञापन भी खूब प्रकाशित करता है. इसमें क्या पैसे का वर्चस्व वाले उम्मीदवार को क्या लाभ नही मिलाता होगा. विज्ञापन ही वो आधार है जो अखबार  की आर्थिकी को बनाये रखता है .हो सकता है एक दिन ऐसा भी हो की चुनावी विज्ञापन भी चुनाव आयोग की नजर की किरकिरी बन जाएँ. फिलहाल प्रत्याशी के नाम दिया सारे विज्ञापन का सही लेखाजोखा रखना जरूरी है, कहीं तो ये कुल खर्च की सीमा से ये बढ़ सकते है.

 मीडिया प्रत्याशियों के चुनावी विज्ञापन भी खूब प्रकाशित करता है. इसमें क्या पैसे का वर्चस्व वाले उम्मीदवार को लाभ नहीं मिलाता होगा..? पर ये आय मीडिया केलिए जरूरी है.
विज्ञापन ही वो आधार है जो अखबार  की आर्थिकी को बनाये रखता है .हो सकता है एक दिन ऐसा भी हो कि चुनावी विज्ञापन भी चुनाव आयोग की नजर की किरकिरी बन जाएँ. क्योकि इससे समर्थवान प्रत्याशी को लाभ मिलाता है और ये धन का वर्चस्व को साबित करता है लोकप्रियता को नहीं. फिलहाल प्रत्याशी के नाम दिया सारे विज्ञापन का सही लेखाजोखा रखना जरूरी है, कहीं तो ये कुल खर्च की सीमा से ये बढ़ सकते है.चुनाव के इस मौसम में कुछ अख़बारों का जन्म ही पेड़ न्यूज के लिये होता है. वे पेड न्यूज के लिए पोशीदा दरवाजे खोल सकते हैं.यकीनन चुनाव आयोग के लिए इस सब को रोकना अतिरिक्त काम होगा पर ये अहम काम, निष्पक्ष चुनाव के लिए बेहद जरूरी है.

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

निष्पक्ष चुनाव:शराब वितरण रोकने महिलाओं को दे जवाबदारी


चुनाव सुधार की प्रकिया निरंतर जारी है, इस बार ‘कोई पसंद नहीं’ के लिए भी वोटिंग मशीन में बटन होगा. पर इतना ही काफी नहीं है, चुनाव प्रचार बंद होने के बाद मतदाताओं को लुभाने अथवा ये कहा जाये, मतिभ्रमित करने शराब का जिस बड़े पैमाने में किया जाता है, उसके सामने मतदान की निष्पक्षता दम तोड़ देती है,, जिस शराबबंदी की बापू हिमायत करते थे वो शराब मतदान के बाद नतीजों पर निर्णायक भूमिका निर्वाह कराती चल रही है !

समाज में इतनी जागरूकता आई है की गाँव की महिलाएं अवैध शराब विक्रय की रोकथाम में वो कठोर कदम उठती दिखने लगी है, वो शराब के खिलाफ समूह बन कर कलेक्टर के दरवाजे पर दस्तक देती हैं, गाँव में शराब पीने वालों को सबक सिखाती है, यहाँ तक शराब ठेकेदार के गुर्गे भी उनसे दूरी बना कर चलते है. ये है नारी सशक्तिकरण, नारी जान चुकी है कि, शराब ने उनके घर का बजट बिगाड़ा है.और नशे के दुष्परिणाम क्या हैं, चुनाव आयोग महिलाओं की इस ताकत का आसन्न चुनाव में बखूबी उपयोग कर सकता है जिसके सकारात्मक नतीजे चुनाव परिणाम मिलाना तय है.

नामांकन दाखिले के साथ चुनाव आयोग शराब फैक्ट्री, से लेकर शराब ठेकेदारों पर नजर बनाये कि  मदिरा की कोई बड़ी खेप किसी राजनीतिक दल या उम्मीदवार तक न तो नहीं पहुँच रही है.आम अवधारण बन चुकी है कि ये शराब मतदान को प्रभावित करती है. मतदान के पहली रात शराब किसी की हार को जीत में बदल देती है, शराब और बकरा गाँव में प्रत्याशी की तरफ से वितरण कारने की परिपाटी इस तरह पैठ कर चुकी है कि कुछ मुहल्लों के मतदाता मांग करते हैं या गरीब वर्ग के मतदाता इसके लिए आस लगा के बैठे रहते है.

संविधान में हर बालिग़ कोएक देने का अधिकार है, ऐसी दशा में किसी के विवेकपूर्ण मतदान,दूसरी तरफ किसी नशे में डगमगाते का वोट भला कैसे बराबर हो सकता है. कुछ तो वोट डालने के बाद राह में गिरे-पड़े दिखते हैं. इनको अपने वोट की अहमियत का ज्ञान आज तक नहीं है. कोई ये देखने वाला भी नहीं होता की मतदान करने वाला क्या मतदान केंद्र में शराब पी कर 'भारत भाग्य विधाता बना' हुआ है. न जाने ये सिलसिला कब थमेगा..चुव सुधार के लिए प्रकिया सतत चल रही है आशा की जा सकती है चुनाव आयोग यदि चाहे तो एक दिन ऐसा आएगा जब 'महिला समूह'  गाँव-गाँव में मतदान के पहले वितरण होने वाली शराब को रोकने में कामयाबी होंगी पर उसके लिए प्रशासन और चुनाव आयोग दवारा  'महिला समूहों' को प्रोत्साहित करने की ठोस योजना को प्रभावी तरीके से लागू करनी होगी ..!