गुरुवार, 9 मई 2013

सर्कस की लड़की और अल्प वेतनभोगी पत्रकारों की दशा


सर्कस का सूर्यास्त हो रहा था, तभी बिलासपुर में एक पंडाल लग गया. जिस प्रकार मानस में तुलसी ने शुरुआत में खल पूजन किया है,ताकि विघ्न पहुँचने वाले उनसे प्रसन्न रहें, इस प्रकार सर्कस के मालिक ने भी पहला शो उनके नाम कर दिया जो उसके इस अनुष्ठान में विघ्न पंहुचा सकते थे. प्रेस को भी शायद इसलिए फ्री पास भेजा गया था. मैं भी सर्कस देखने पत्रकार साथियों के साथ गया.

जानवरों से मुझे अनुराग रहा. देर रात में और मेरी धर्मपत्नी कृष्णा सर्कस के बाहर बंधे हाथी के शावक को केले खिलाने जाते थे .फिर एक दिन सुबह की बैठक में केशव शुक्ल जी के कहा ‘आप सर्कस का समाचार कवर कीजिये. मैं भी आज साथ कैमरा लेकर चलूँगा. सर्कस के मालिक ने समय दिया ‘दोपहर तीन बजे आप लोग आ जाएं'.सर्कस का मालिक वन्यजीवों के सर्कस में लगने वाली रोक से परेशान था. केशवजी जानकारी ले रहे थे, इस बुजुर्ग का अनुभव और उससे मिले इस ज्ञानं जिसे मैं इस ब्लाग में आपसे साँझा करने जा रहा हूं –

दोपहर का शो खत्म हुआ था] मैंने कहा ‘कुछ कलाकारों से भी चर्चा कर ली जाए. सर्कस मालिक ने एक शो से वापस जा रही युवा बाला को बुलाया. वो गाउन पहने अपने काकातुआ तोतों के साथ दो चली आई, केशव शुक्ल ने उससे कुछ सवाल पूछे .फिर उसकी फोटो लेनी थी. जैसे ही उसे फोटो के लिए मैंने कहा ग, उसने एक झटके में गाउन उतरा दिया. अब वो टू पीस में थी. दोनों अधोवस्त्रों को पूरीतरह नग-नागिनों से जड़ा गया था. इतने करीब इस सुंदरी को देख में हतप्रभ रह गया. फोटो तो लेली. कुछ देर बाद जब वो चली गई तब में सर्कस मालिक से पूछा इस कलाकार को मासिक वेतन कितना मिलता है. जवाब मिला- ‘हजार रूपये महीना और सर्कस में बना भोजन....रहती कहाँ हैं ?- टेंट में, मैंने देखा कुछ दलदली जमीन पर टेंट लगे थे..!मैंने फिर पूछा- सर्कस में जान का जोखिम,इतने कम वेतन मैं .. ये यहाँ से चलीं क्यों नहीं जातीं ? उसने कहा- एक सर्कस से जाती हैं, तो दूसरी इसी वेतन पर काम करने किसी दूसरी सर्कस से हमारी सर्कस में चली आती है.पर ऐसा क्यों ? मैंने जिज्ञासा से पूछा- ‘जवाब मिला इनको लाईट में रहने की आदत हो गई है, क्योंकि अपने काम की तारीफ में मिली तालियाँ इन्हें पसंद हैं’’. वो अपनी बात खत्म कर चुका था...पर मैं अशांत हो गया ..सोच रहा था, यही हाल बड़ी संख्या में उन पत्रकारों का है जो कम वेतन में जान जोखिम में डालते हैं और एक प्रेस से दूसरी में काम करते हैं, बस पत्रकारिता की चमक और उनके लेखन की झूठी तारीफ के मोहपाश में जकड़े हैं. शायद वे भूले रहते हैं कि, जो सलाम उनको किया जा रहा है वो दरअसल उनको नहीं उनकी कुर्सी को है.!! आंचलिकपत्रकारों के हालात तो और खस्ता हैं ..!

‘सौतेली बिजली’ और ‘सगी माँ बिजली:
सर्कस के मालिक को घाट-घाट का अनुभव था, अगला शो शुरू होने से पहले जो जनरेटर शुरू हुआ है जो पूरे शो में चल था, मैंने पूछा जब बिजली है तो ये जनरेटर क्यों चल रहा है, इसे बंद कर दो.. तब सर्कस के मालिक ने कहा- मंडल की बिजली ‘सौतेली माँ’ है और ये जनरेटर की बिजली ‘सगी माँ’. फिर उन्होंने बात साफ की,बोले’ मानो बाघ का शो चल रहा हो या लड़की रस्सी पर चल रही हो और मंडल की बिजली अचानक धोखा दे जाए ..? तो बड़ी दुर्धटना हो जाएगी ,पर जनरेटर की बिजली अचानक गुल नहीं होती पहले जनरेटर कुछ फट-फिट सी अजीब आवाज करता है. हम सावधान हो जाते हैं .इसकी बिजली सगी माँ है, ये कभी हमें धोखा नहीं देती .. मंडल की बिजली बंद हो तब भी शो इससे चलता रहता है..!

[फोटो गूगल से साभर]

6 टिप्‍पणियां:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

स्पाट लाईटों की चमक और तालियों के पार्श्व का कड़ुवा सच।

rajesh dua ने कहा…

हाँ बाबू ....ये सर्कस है ...शो तीन घंटे का .....

http://dr-mahesh-parimal.blogspot.com/ ने कहा…

सर्कस को पत्रकारिता से जोड़कर बहुत ही बढि़या जोड़ निकाला प्राण भैया आपने। सचमुच इस दिशा में शायद ही किसी ने ध्‍यान दिया होगा। पत्रकारिता की हालत तो बड़ी खराब है, पर सर्कस भी दम तोड़ रहा है। जानवरों के नाम पर कई प्रतिबंध । दो पैर वाले जानवरों के लिए कोई कानून नहीं, पर चौपाए के लिए कई कानून। क्‍या सीन है। कुछ तो करो मेनका गांधी जी।

महेश परिमल

केवल राम ने कहा…

एक नया अध्याय ...!!

Rahul Singh ने कहा…

जिंदगी, करामाती झूलों और खूंखारों के बीच जगमग, जलती-बुझती रोशनी की आंख-मिचोली.

Unknown ने कहा…

चमक में रहने की आदत का अंत बुरा होता है.जीवन की वास्तविकता से न सर्कस की लड़की वाकिफ हो पाती है न डायरी हाथ में लिए घूमने वाले अल्प वेतन भोगी पत्रकार ..!