बुधवार, 5 जून 2013

आसमान छूने की, छोटी सी आशा



 दूर-दराज की बालिका अब अनंत-आकाश में उड़ान चाहती हैं.  वे भी आकाश में अपना हिस्सा चाहती पर मांग नहीं रही हैं, उनके मन में भी इस चाह के अंकुरण प्रस्फुटित हो रहे हैं, दो बालिकाओं को मैं  दूर से देख रहा था, पहले मुझे लगा कि वो हाथ पकड़ के खेल रही हैं. फिर एक ने उसे गोल घुमाते हुए दूसरी को अपनी और खींचा, वो करीब आ कर पीठ की और झुक गई, जिसने उसे अपनी तरफ खींचा था उसने पीठ के नीचे हाथ रख कर सहारा दिया..अब समझ में आया की वो तो नाच रही हैं . ठीक नर्गिस-राजकपूर की तरह की मुद्रा में दोनों थी. उन्होंने बड़ी खूबी से इसे अंजाम दिया था. बिलकुल ‘आरके’. के ‘लोगो’ की सामान वो कुछ पल बनी रहीं.

मेरे पास तब कैमरा नहीं था ,कुछ देर बाद मैंने उनकी फोटो खम्हार के ऊँचे पेड़ों के बीच ली, छोटी इन  बालिकाओं के अभिलाषा मुझे इन पेड़ों से ऊँची लगी. ज़रूर उन्होंने टीवी में ये नृत्य देखा होगा और भा गया होगा.  मगर कुछ साल पहले ऐसा नहीं था. तीन साल में दो बच्चों की दर से ग़ुरबत में गरीब की संतान बढ़ती, अगर घर में ‘छोटी’ और ‘बड़ी’ होती तो पैदावार की गति भी दूनी होती. पसीना बहाकर रोटी कमाने वाले इस वर्ग की नियति में विधाता ने बेरहमी से लिखा है कि, घर के हर सदस्य को दो जून की रोटी के लिए मेहनत से जुटे रहना होगा. इसलिए परिवार के बड़े सदस्य जब मजदूरी के लिए जाते तो घर का सारा कम आठ-दस बरस की इस ‘छोटी माँ’ पर होता. स्कूल का दरवाजा देखना तो दूर उसका बचपन खेलने के लिए भी तरस जाता.

मगर ये बदलाव का दौर है, अब बचपन खेल रहा है और खेल में नाच रहा है. मगर जंगल के मोर को नाचते देखने का सौभाग्य विरले को हो प्राप्त होता है. मेरा मन हुआ कि उन्हें कहूँ कि फिर वैसा वे फिर से वैसा नाचे मैं फोटो लेना चाहता हूँ ,पर ये फोटो बनावटी लगती, हो सकता  कि  उनकी निजता को ठेस लगती और फिर वो कभी दिल से न नाचतीं. या बंद कर देती नाचना, वैसे भी  आज की दुनिया में मन से नाचने वाले वैसे भी कितने बचे हैं.

जब कभी में जंगल से गुज़रता हूँ तब साइकिल से स्कूल आ-जा रही लड़कियों को देखता हूँ, तो सोचता हूँ  जिस जंगल में अपने पिता और उनके शिकारी मित्र एस.के सिन्हा साहब के साथ बचपन में शिकार पर जाता था, वहाँ आज विकास ने दस्तक दी है और आदिवासी बालिका स्कूली ड्रेस में सहेलियों के साथ गीत गाते जाते दिखाई देतीं हैं. तब भला किसी ने ये सोचा था कि एक दिन ये सब सम्भव  होगा . किसी ने सही कहा है कि,  ‘कभी-कभी बदलाव की गति इतनी तेज होती है की वो प्रत्यक्ष दिखाई देती है..!!




                                    

2 टिप्‍पणियां:

Rahul Singh ने कहा…

चलचित्र की तरह होता परिवर्तन.

girish pankaj ने कहा…

bachee rahe yah aashaa