रविवार, 2 जून 2013

नक्सली समस्या,सेना का उपयोग क्यों नहीं ! .





 नक्सली छोटी-छोटी वारदात के बाद फिर कोई ऐसी बड़ी हिंसा के घटना को अंजाम देते है कि, सारा देश चिंतातुर हो जाता है. और फिर नेता घटना को कायराना निरुपित करते हुए ,उसकी भर्त्सना ,जाँच की घोषणा करता है. नक्सलियों की अंतहीन वारदातें ये साबित करने के लिए काफी है कि सरकार इस मोर्चे अब तक असफल है  जैसी बातें की जाती वो सब सांप निकालने के बाद लकीर पीटने के अलावा कुछ नहीं. मामला घर का है, इसलिए 'सेना की कोई जरूरत नहीं ये भी बयान में साथ चिपका दिया जाता है'..खुद से कुछ होता नहीं, और सेना को करने देते नहीं ..!

 1967 नक्सलबाड़ी विद्रोह को घटना आज माओवाद का रूप ले चुकी है..जिसके विचार में क्रांति बंदूक की नाल से निकलती है. पंद्रह साल के दौरान देश में 2500 जवान माओवादियों की गोली से शहीद हो चुके हैं. दस साल में पांच हज़ार करोड़ रूपये दस साल में खर्च हो चुके हैं..मगर माओवाद देश में पसरता जा रहा है..राज्योद्य के पहले छतीसगढ़ ‘शांति का टापू' माना जाता था. यद्यपि नक्सलवाद का बीजा रोपण हो चुका था. पर फिर 2005 में महेंद्र कर्मा की अगुवाई में ‘सलवा जुडूम’ का प्रयोग किया गया..अब बस्तर का आदिवासी जीवन अशांत हो गया था . नक्सली भी इसके खंदक की लड़ाई लड़ने लगे. फिर सलवा जुडूम बंद हुआ. रमन सरकार ने इसे किसी  नाजायज संतान की तरह अपना कहने से इनकार कर दिया..! दूसरी तरफ सलवा जुडूम के कारण शिविर में रह रहे हजारों विस्थिपितों की जान पर बन आई और नक्सली आज तक इसके नेताओं से बैर भांजा रहे हैं.

‘कोया कमांडो” का प्रयोग भी औंधेमुंह गिरा..! दूसरी और नक्सली अपनी ताकत में इजाफा करते गए. बस्तर के वन जहाँ भोले आदवासियों के वास है वे गुमराह होने लगे ..माओवाद का प्रसार दूसरे जिले में भी हो गया..! आरण्यसंस्कृति में विकृति आ गई .बस्तर संभाग में अर्से से पिछड़ेपन और शोषण ने नक्सलवाद के लिए उर्वरा भूमि तैयार कर दी थी ..नक्सली गार्ड की हत्या कर कलेक्टर एलेस्क्स पाल को उठा ले गये , जवानों सहित एसपी विवोद चौबे की हत्या, जवानों से भरी गाड़ी को उड़ने के बाद गोलीबारी कर सब को शहीद करने जैसी गंभीर वारदात होती रही हैं ,और सरकार माओवाद की गोली के जवाब में सफ़ेद कपोत उड़ती रही है ..! जो प्रयास किया गया वो कभी परवान न चढ़ा..!

25मई 2013 को तो जीरम घाटी में नक्सलियों ने सड़क पर विस्फोट कर प्रदेश कांग्रेस के काफिले पर योजना बनाकर बेरहमी से हमला किया उसकी गूंज दिल्ली दरबार तक पहुँच गई. इस हमले में बस्तर का शेर का महेंद्रकर्मा, प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नद्कुमार पटेल के सुपुत्र दिनेश पटेल सहित 29 की हत्या क़र दी, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीसी शुक्ल गंभीर  घायल हुए. उनको चार गोलियां लगी हैं.

 सभी बड़े नक्सली हमले एक ही तरीके से किये जा रहे हैं - सड़क में विस्फोट कर गाड़ी को उडाओ और फिर घेर कर अँधाधुंध गोलीबारी कर सबको ख़त्म कर दो..हमारे विशेषज्ञ इस रननीति की  कोई काट नहीं खोज सके हैं . ये बात भी समझ के परे है कि सुरक्षा के लिए तैनात जवानों की गोलियां खत्म हो जाती है वे शहीद हो जाते है पर गोलीबारी करने वाले नक्सली नहीं मारे जाते..! इसका कारण खोजना होगा..! हर बार हमारा सूचनातंत्र काम नहीं करता और खेद है कि इसका कोई जवाबदार भी नहीं होता.

 पानी सिर से ऊपर हो चुका है, कांग्रेस के काफिले पर हमले के बाद अब सरकार के ‘सामने करो या मरो की दशा है’ .पता नहीं इस मसले को कितनी गंभीरता से लिया जा रहा है. अलबत्ता कांग्रेस और बीजेपी के लोग एक दूजे पर साजिश का कीचड़ उछाने में लगे हैं..न्यायिक जाँच शुरू हो गई है,उसके प्रतिवेदन पर कितना अमल होगा ये आने वाला समय ही बताएगा. एनआईए इस गोलीकांड की विवेचन कर रही है.

नक्सली समस्या का निदान कैसे-

1 ये बात तय हो चुकी है कि नक्सलियों ने आदिवासियों के बीच पैठ बना ली है. सैकड़ो नक्सली जमा होते हैं और कोई गाँव वाला उनकी सूचना शासन को नहीं देता..इसके दो कारण होंगे.
अ.    आदिवासी नक्सलियों के प्रतिशोध से डर चुके हैं और वे अपनी जान जोखिम में डालने के लिए तैयार नहीं.
     ब .आदिवासियों का विश्वास नक्सली जीत चुके हैं ,और गाँव वाले उनकी लड़ाई को अपनी मान कर साथ दे रहे है. चाहे वो छले ही जा रहे हो.
इन दोनों बातों का निदान कराना होगा.

2 नक्सलियों लड़ाई की शैली जानी पहचानी है, यहाँ वो  चक्रव्यूह रचते हैं, और ‘अभिमन्यू’ घिर कर शहीद हो जाते हैं, पर अगर नक्सलियों का पाला ‘अर्जुन’ से पड़े जो उनके बिछाए चक्रव्यूह हो तोड़ना जाते हो तो हर मोर्चे में उनको बड़ी जनहानि होगी, जिससे उनके हौंसले पस्त होने में देर न लगेगी..! जब जान का जोखिम जब समझ में आएगा तो गाँव वाले भी हाथ खींच लेंगे. जुड़े प्रदेशों में नक्सली उन्मूलन के लिए सयुंक्त अभियान की बात होती है पर बेहतर नतीजे नहीं मिल रहे..?

3.पुलिस का सूचनातंत्र फेल होने की बात हर बार उजागर होती है. जबकि नक्सलियों के सूचनातंत्र को बेहतर माना जाता है. ये किसी लडके  संगठन के लिए सबसे कमजोर पहलू है. जब तक सूचनातंत्र पंगू रहेगा ,नक्सलियों को रणनीति बनाने और  वारदात में मदद मिलती रहेगी..! आज सादे कपड़ों में नक्सली और ग्रामीण में विभेद करना कठिन है, दशा ये बनानी होगी  कि पुलिस के आदमी और ग्रामीण में अंतर करना कठिन हो जाए ..!

4 ये हकीकत है कि आज पुलिस के जवान जिनको ‘मलाई खाने’ की आदत है वो नक्सली एरिया नहीं जाना चाहते, तोंदूल पुलिस अधिकारी कर्मचारी को वीआरएस दे कर विदा करें, नए उत्साही निशानेबाज पुलिस बल बनाया जाये जिन्हें आकर्षक वेतनमान दिया जाए ..! इनकी ट्रेनिंग भी कमांडो सी हो ..!
5. जब समस्या नासूर हो रही है तो सेना को बस्तर में उतंरे को हिचका न जाये, नक्सली समस्या निदान के लिए 1968 में पश्चिम बंगाल ने सेना की सेवा ली गई थी, असम और कश्मीर में सेना आज भी है..हम अगर दूसरे क्या कहेंगे ये सोच सरकार भीरु बनी है ,तो यहाँ महात्मा गाँधी के को स्मरण करना होगा, जिन्होंने कहा था-  ‘’जहाँ सिर्फ कायरता और हिंसा के बीच किसी एक के चुनाव की बात हो तो मैं हिंसा के पक्ष में राय दूंगा.” [सभी फोटो गूगल से साभार].

           हिंसा का आघात तपस्या ने कब कहाँ सहा है..?
           देवों का दल सदा दानवों को हराता  रहा है ..! –

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