शुक्रवार, 10 मार्च 2017

होली और किसबिन नाच


होली जब करीब होती और रात नगाड़े बजते तब किसबिन का नाच उनकी थाप पर होता। आज समय का प्रवाह आगे बढ़ गया है और किसबिन अतीत की गोद में समां गई है,पर जब मनोरन्जन के साधन कम थे और सोच में सामंतवाद तब किसबिंन का नाच रंग में हुजूम सारी रात लगा रहता।
सन 84 के आसपास होली पर नाचनेवाली किसबिंन बिलासपुर के कथाकोनी,बेलसरी,से मुंगेली तक कही भी होली के सप्ताह पहले पड़ाव डालती, उनके रसिक, वहाँ मोल भाव कर एक कागज में कितने दिन के लिए ले जा रहे हैं, लिखते,सुरक्षा का जिम्मा भी लेते और साथ ले जाते। बाज़ मानो चिड़िया की सुरक्षा का भार ले रहा हो। पत्रकारिता में कलम पकड़े कुछ साल हुए थे, शशि कोन्हेर, सूर्यकांत चतुर्वेदी, सब रिपोर्टिंग के लिए पहुंचते,आफसेट छपाई का युग आ चुका था। जब काफी छपा तब मामला मप्र विधान सभा में भी उठा,उनके पुनर्वास की बात की गई, किसी ने परम्परा निरूपित किया।
बेलसरी में फूलडोल में किसबिन नाच हो रहा था, छत से मैने विविटार की फैलशगन से रात फोटो ली, सुबह जब वह् अख़बार में प्रकाशित हुई, तो कुछ नामी चश्मा पहने साफ पहचान आ गए। घर में मेरी खूब खिंचाई हुई।
किसबिन, औरत की मजबूरी का नाम था, वो कोई दूजा काम जानती नहीं, फिर स्नो पाउडर,श्रंगार और वाहवाही के बीच विवशता के थिरकते पाँव ।,आज ये नहीं,अच्छा हुआ पर वह् भी एक दौर था,और हकीकत।।

(पुरानी होकर फोटों क़्वालिटी खत्म हो गईं है)

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