होली जब करीब होती और रात नगाड़े बजते तब किसबिन का नाच उनकी थाप पर होता। आज समय का प्रवाह आगे बढ़ गया है और किसबिन अतीत की गोद में समां गई है,पर जब मनोरन्जन के साधन कम थे और सोच में सामंतवाद तब किसबिंन का नाच रंग में हुजूम सारी रात लगा रहता। सन 84 के आसपास होली पर नाचनेवाली किसबिंन बिलासपुर के कथाकोनी,बेलसरी,से मुंगेली तक कही भी होली के सप्ताह पहले पड़ाव डालती, उनके रसिक, वहाँ मोल भाव कर एक कागज में कितने दिन के लिए ले जा रहे हैं, लिखते,सुरक्षा का जिम्मा भी लेते और साथ ले जाते। बाज़ मानो चिड़िया की सुरक्षा का भार ले रहा हो। पत्रकारिता में कलम पकड़े कुछ साल हुए थे, शशि कोन्हेर, सूर्यकांत चतुर्वेदी, सब रिपोर्टिंग के लिए पहुंचते,आफसेट छपाई का युग आ चुका था। जब काफी छपा तब मामला मप्र विधान सभा में भी उठा,उनके पुनर्वास की बात की गई, किसी ने परम्परा निरूपित किया। बेलसरी में फूलडोल में किसबिन नाच हो रहा था, छत से मैने विविटार की फैलशगन से रात फोटो ली, सुबह जब वह् अख़बार में प्रकाशित हुई, तो कुछ नामी चश्मा पहने साफ पहचान आ गए। घर में मेरी खूब खिंचाई हुई। किसबिन, औरत की मजबूरी का नाम था, वो कोई दूजा काम जानती नहीं, फिर स्नो पाउडर,श्रंगार और वाहवाही के बीच विवशता के थिरकते पाँव ।,आज ये नहीं,अच्छा हुआ पर वह् भी एक दौर था,और हकीकत।। (पुरानी होकर फोटों क़्वालिटी खत्म हो गईं है)
ये बात उन दिनों की है जब विदेशियों ने घोटूल पर फिल्म बनाई थी। बहुत चर्चित हुई, कुछ अंतराल बाद बस्तर को समझने रायपुर से बस्तर पहुंचा, कैमरा साथ था, नवभारत के बुद्धिजीवी पत्रकार बसन्त अवस्थी जी से।पह्चान थी,इकबाल,वर्मा,सुभाष पांडे उनके मित्र थे, सब के सब बस्तरिया,।
साथ मेरे श्रीकांत खरे भी थे, जो उम्दा फोटो लेते, एक दिन में एक दिशा जाते,रत्न परिष्कार केंद्र के नवीन चतुर्वेदी की डीज़ल बुलेट थी, स्वर्गीय महाराज प्रवीर चन्द्र भंज देव का अवतार कंठी वाले वाले बाबा बिहारी दास के आश्रम भी हो आये,एक दिन महिला पत्रकार चक्रेश जैन भी मिलीं, वो शायद इण्डियन एक्सप्रेस से आई थी। बसन्त अवस्थी साथ थे, तभी बाजार, हाट जाती इन बस्तर नारियों का समूह दिखा, बस चुपके से फोटो लीं। बसन्त भाई, गुरुवर से कमतर न थे, उन्होंने मुझे कहा किसीं एक से पूरा सामान का मोल भाव कर खरीदो, ये समूह जंगल खेत होते पक्की सड़क पहुंच था और घनेरे पेड़ की छांव में पानी पीने रुका था।। ज्यादा तर ये हल्बी समझती थी,पर मुझे हिंदी आती थी। फिर भी कच्चे आम की एक टोकरी का नोट दिखा कर मोल करने लगा। दस दस के छः नोट का मोल लगा दिया पर वो देने को राजी नही हुई। तब ये बड़ी रकम होती थी। आखिर मै हार गया,बसन्त भाई साहब ने बताया कोई सौ रुपए भी दे तो ये पूरी टोकनी आम नहीं बेचेगी। सर पर बोझ उठाये,महिलाएं आगे बढ़ गई। बसन्त भाई आज नहीं है, पर उनकी बात याद है। उन्होंने कहा-ये राह में आम बेच देगी तो हॉट में क्या करेगी। ये बेचना तो बहाना है, वहां हाट में,अपने नाते रिश्तेदार से वो मिलेगी, दुःख सुख,रिश्ते की बात करेगी, कुछ आम उनको देगी, आम तो 20 रुपए के हैं पर मेलजोल अनमोल है। इसके लिए वो हाट जा रही है। ये ही उनकी मौलिकता है। परस्पर कितना स्नेह था इन बस्तरियों में, और आज ये नक्सली और पुलिस की गोलीबारी, दूषित राजनीति में घिरे गये है। विकास की कितनी बड़ी कीमत इन्होंने चुकायी है, किसी ने नहीं।। ( फोटो पुरानी हो कर क्वलिटी खो चुकी है।)