रविवार, 5 फ़रवरी 2017

कोलकता के ये रिक्शे


समय बदला,कलकत्ता का नाम बदला,कोलकाता हो गया पर हाथ से खींचने वाला रिक्शा आज भी इसकी सड़कों पर दौड़ रहा है। सन 1953 'दो बीघा जमीन' का शम्भू (बलराज साहनी) विक्टोरिया मैमोरियल हो या धर्मतल्ला से सवारी की तलाश में धुँधुरू बजाता है। मोलभाव बाद वो रिक्शे में जुत जाता है, पेट के लिए, अपने घर की गाड़ी चलाने, सड़कों पर हांफता सवारी और उम्र का बोझ लिए दौड़ रहा है।
सुंदरवन से वापसी पर इनसे मुलाकात हो गई, दुखित एक रिक्शा वाला बोला, सरकार ने कुछ नहीं किया, उसकी मांग थी सरकार रिक्शा दे दे।। याने वो जिस रिक्शे को खींचता वो भी किराए का है।। 26 जनवरी गणतंत्र दिवस की रौशनी से जगमगता कोलकाता, और उसमें लगा विवशता का ये पैबंद, मेहनतकशों की हिमायती माने जाने वाली सरकारे बनीं, पर इन बद नसीबों की तकदीर न संवरी,। धिक्कार है, मानवता की बात करने वालों को,जो इनकी मज़बूरी की संकल आज तक न् काट उनकी विवशता को नियति माने आँख मूंदें हुए है।
( , जाने इनकी सुबह कब होगी )

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