पर इस बात को काफी समय हो गया है..बीते संडे हमने पक्की सड़क छोडकर आदिवासियों को जंगल से अंदर से जाते देखा,,मेरे साथ पत्रकार सत्य प्रकाश पाण्डेय,शिरीष डामरे,मुकेश मिश्रा भी थे..! जगह थी अचानकमार के जंगल का बफरजोन !
हमारे देखते-देखते उन्होंने नदी पार को और फिर जंगल में ओझल हो गए ,,! कम से कम वो वो परिवार में थे और हाथ कुल्हाड़ी भी न थी याने वे लकड़ी काटने वाले नहीं थे ,,!
मेरे दिमाग में सवाल अनुतरित रह गए जिस वक्त और आप को सौंपता हूँ ,,!
1, क्या आदिवासी आज भी शहरीजनों से दूरी बनाये रखना चाहता है..?
2, सड़क को छोड़ वो शार्टकट क्यों चल रहा है जबकि यातायात सुविधा उपलब्ध है ?
3,या फिर वनपुत्रों को सड़क के बजाय जंगली पगडंडी ही पसंद है जिस रहा में वो सदियों से चल था हैं 4,अन्य कोई कारण..
मेरे लिए उंनका मीलों दूर इस तरह गंतव्य को बच्चे और कुत्ते के संग जाना यक्ष प्रश्न बना है ,,क्योकि ये मामला वनोपज संग्रह से नहीं ,,पूछा तो वो बोलते नहीं बढ़ते गए ,,!
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