रविवार, 5 फ़रवरी 2017

गुरुदेव का रक्षाबंधन और फूल


कौमी एकता और भाईचारे में इस सुर्ख फूल ने काफी अहम् भूमिका अदा की है। मुझे इस अजनबी फूल ने अपनी रंगत से खींच लिया और इसकी फोटो मैं ले रहा था। या बात है इस 28जनवरी की,जगह पश्चिम बंगाल के सुंदरबन के झारखंडी आइलैंड के मैन्ग्रोव वाइल्ड रिसोर्ट की,तभी इस रिसार्ट के मालिक सोमनाथ दा ने बताया गुरुदेव रवींद्रनाथ टेगौर,ने राखी के पर सबको एक सूत्र में बाँधने राखी बढ़ने का अभियान छेड़ा जिसमे जातिगत भावना से उठ रक्षा बंधन किया। जिसमे राखी ये फूल बना।
सोमनाथ दा के इस बयान को गूगल ने मैच किया और ये । वो नीचे वो पेस्ट है।
 गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर ने राखी के पर्व को एकदम नया अर्थ दे दिया. उनका मानना था कि राखी केवल भाई-बहन के संबंधों का पर्व नहीं बल्कि यह इंसानियत का पर्व है. विश्वकवि रवींद्रनाथ जी (Rabindranath Tagore) ने इस पर्व पर बंग भंग के विरोध में जनजागरण किया था और इस पर्व को एकता और भाईचारे का प्रतीक बनाया था. 1947 के भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिए भी इस पर्व का सहारा लिया गया. इसमें कोई संदेह नहीं कि रिश्तों से ऊपर उठकर रक्षाबंधन की भावना ने हर समय और जरूरत पर अपना रूप बदला है. जब जैसी जरूरत रही वैसा अस्तित्व उसने अपना बनाया. जरूरत होने पर हिंदू स्त्री ने मुसलमान भाई की कलाई पर इसे बांधा तो सीमा पर हर स्त्री ने सैनिकों को राखी बांध कर उन्हें भाई बनाया. राखी देश की रक्षा, पर्यावरण की रक्षा, हितों की रक्षा आदि के लिए भी बांधी जाने लगी है. इस नजरिये से देखें तो एक अर्थ में यह हमारा राष्ट्रीय पर्व बन गया है."
जब मैंने सोमनाथ दा से फूल का नाम पूछा तो वो बोले,
रक्षाबन्धन फूल।।

स्वदेशी का साइड एफ्केट और सुंदरवन

सूर्योदय हो या सूर्यास्त, पश्चिमी बंगाल का सरहदी इलाके का समंदर लाल हो जाता है। कुल 57 आइलैंड पर चार इतने आबाद की सैलानियों के लिए वन्यजीव और समुन्द्र में जाने के प्रवेशद्वार, बात झारखण्डी की है।
जब यहां से सुंदरवन रवाना हुआ तब मेरे वाइल्ड लॉइफ फोटोग्राफर मित्र शिरीष डामरे ने कहा- मेरे लिए थोड़ा सा सुंदरवन का चावल ले आना।। 
जिस होम रिसार्ट में हम रुके वहां जल्दी ही घनिष्टता हो गई। दूसरे दिन तड़के रिसार्ट का मालिक सोमनाथ दा सामान लेने मार्केट जा रहे थे, उनके साथ में भी हो लिया, बातचीत में पता चला,Shirish Damreको जिस चावल का स्वाद दो साल बाद भी याद था उसका नाम है, दूधेश्वर, दा ने बताया कि, एक ऐसा दुकानदार है जो खेतों में उसे उपजता है और अपनी दुकान में बेचता है।। मैंने उससे 29 रूपये में एक किलो चावल लिया।
जब हम रिसार्ट पहुंचे तब पूछा, यहां कौन सा चावल बनता है, जवाब मिला बाबा जी का बासमती, ला कर पैकेट भी दिखया, कहा अतिथि बासमती की और ब्रान्डेड चावल की मांग करते हैं। इसलिए इसे बनते हैं। उसे दिन बिना रासायनिक खाद का उपजा चावल दुधेश्वर बना, कोई ये नहीं जाना की ब्रान्डेड बासमति नहीं।
लेकिन इस ब्रांडिंग के चलते, लोकल किसानों का उपजा दूधेश्वर, बाज़ार से बाहर हो गया। एक तो वहां खेती करना कठिन है, फिर जैवविविधता से एक चावल लुप्त हो रहा। मुझे समंदर का पानी लाल दिखा, जरूर उसकी लाली में झोपडी में रहने वाले उन किसानों का गुस्सा शामिल होगा, जो दूध सा सफेद और ईश्वर सा पवित्र धान दुधेश्वर परम्परागत उपजते रहे, और बासमती की बॉन्डिंग जनित मांग से चुपके से विमुख हो गए या हो रहे हैं।

कोलकता के ये रिक्शे


समय बदला,कलकत्ता का नाम बदला,कोलकाता हो गया पर हाथ से खींचने वाला रिक्शा आज भी इसकी सड़कों पर दौड़ रहा है। सन 1953 'दो बीघा जमीन' का शम्भू (बलराज साहनी) विक्टोरिया मैमोरियल हो या धर्मतल्ला से सवारी की तलाश में धुँधुरू बजाता है। मोलभाव बाद वो रिक्शे में जुत जाता है, पेट के लिए, अपने घर की गाड़ी चलाने, सड़कों पर हांफता सवारी और उम्र का बोझ लिए दौड़ रहा है।
सुंदरवन से वापसी पर इनसे मुलाकात हो गई, दुखित एक रिक्शा वाला बोला, सरकार ने कुछ नहीं किया, उसकी मांग थी सरकार रिक्शा दे दे।। याने वो जिस रिक्शे को खींचता वो भी किराए का है।। 26 जनवरी गणतंत्र दिवस की रौशनी से जगमगता कोलकाता, और उसमें लगा विवशता का ये पैबंद, मेहनतकशों की हिमायती माने जाने वाली सरकारे बनीं, पर इन बद नसीबों की तकदीर न संवरी,। धिक्कार है, मानवता की बात करने वालों को,जो इनकी मज़बूरी की संकल आज तक न् काट उनकी विवशता को नियति माने आँख मूंदें हुए है।
( , जाने इनकी सुबह कब होगी )