मंगलवार, 27 सितंबर 2016

सभागार,और कलाकारों में दूरी ,


हाईप्रोफाइल, स्व लखीराम स्मृति आडिटोरियम अब बिलासपुर शहर की शान है, स्मार्ट सिटी की महत्वपूर्ण जरूरत, पर इसके किये जरूरी गतिविधियों की महती आवश्यकता और माहौल। फिलहाल इसकी कमी है। अगर कमी न होती तो समीपवर्ती राघवेन्द्र राव सभा भवन में कोई आयोजन होता न की हैंडलूम के कपड़े,अचार,खिलौने,प्रदर्शनी के नाम पर विक्रय होते।
बिलासपुर की भूमि उर्वरा है,सत्यदेव दुबे, शंकर शेष, श्रीकांत वर्मा,को भला कौन नहीं जानता, जब तक बीआर यादव और रामबाबू सोन्थलिया रहे, वीणा वर्मा जी का आना जाना रहा, साल में एक दो बार श्रीकांत वर्मा की प्रतिमा पर दीपक जलता पर अब कोई देखने वाला नहीं, डा प्रमोद वर्मा, की याद आज भी ताजा है, डा गजनन शर्मा,पालेश्वर शर्मा, विप्र जी, विस्मृत होने वाले नहीं, पं श्याम लाल चतुर्वेदी, डा सक्सेना, सतीश जायसवाल, मनीष दत्त,इप्टा के कई कलाकार इस शहर को रोशन कर रहे हैं।
बिलासा कला मंच के आयोजन और सोमनाथ यादव की सक्रियता, डा कालीचरण यादव, और हरीश केडिया की संगठन क्षमता इस शहर की पूंजी है। बसन्ती वैष्णव का कथक के प्रति समर्पण,पुष्पा दीक्षित की विद्वता कासानी मिलना कठिन है। अंचल शर्मा का परिवार नहीं, अब वो कला का घराना हो चला है। छत्तीसगढ़ राज भाषा आयोग के अध्यक्ष डा पाठक, गुण सम्पन्न हैं।
सवाल ये है और भी कितनी प्रतिभा शहर में बिखरी हैं, पर सभी सभागार सूने क्यों हैं। रेलवे,कोयल कम्पनी, सिम्स, के अलावा,पण्डित दीक्षित सभागार वीरान क्यों हैं। मुशायरों का दौर भी जाता रहा।
लगता है, बिलासपुर संस्कारधानी नहीं रह गई। कभी बड़े कवि सम्मेलन और उत्सव में रात आँखों में कट जाती थी, आज माल है, बार है, होटल है, पर वह सास्कृतिक महौल नहीं। शून्यता की स्थित बन चुकी है। पर ऐसा नहीं, आज भी काफी प्रतिभा है, जरूरत है, चिन्हित कर एक मंच पर लाके सक्रिय बनने की। ये पहल करनी होगी।। किसी शहर की पहचान, आलीशान इमारतों से नहीं बनती शहर के बाशिंदों के अदब और तहजीब से बनती है।
सवाल है,करोडों रूपये की लागत से बना ये नया सभागार क्या वीरान रहेगा,इसका सञ्चालन कौन करेगा, सांस्कृतिक बयार न बही तो इस आलीशन भवन का नगर निगम के आने जाने वाले परम्परागत अधिकारीयों के हाथों कालांतर किस गति को प्राप्त होगा, फिलहाल तो आशंका के बादल छाये हैं, शायद संस्कृति विभाग के पास कोई दूर की कौड़ी हो।।