शनिवार, 27 जुलाई 2013

अमरकंटक: नींव का पत्थर उपेक्षित,कलश का पूजन




अमरकंटक में माँ नर्मदा नदी के उद्गम स्थल का कुण्ड देखरेख की कमी के शिकार बना है, पहले स्वच्छ जल होता काई का नामोनिशान न होता पर इस मानसून में न तो कुण्ड में जल भराव पूरा है और न ही जल स्वच्छ. मंदिरों समूह कुण्ड में है इन मदिरों पर सफेदी में हरित काई लगा रही है. नर्मदाजी का ये कुण्ड आस्था से जुड़ा है, यहाँ अनुष्ठान होते रहते है. याद होगा कि उमा भारती न यहाँ विधिवत  सन्यास लिया था उन्होंने इस कुण्ड में पवित्र डुबकी लगाई थी. यहाँ उनका नाम उमाश्री घोषित किया गया. इस बार मैं जब पहुंचा तो अनुष्ठान चले रहे थे पर कुण्ड की दशा बदलती दिखी.

अमरकंटक में कभी हम कमलाबाई और अहिल्या बाई की धर्मशाला में रुकते आज हाटल से लेकर पांच सितारा आश्रम मौजूद हैं.महाकवि कालिदास का आम्रकूट का रूप बदल गया है. बदलाव तो होना ही था पर इस सुंदर स्थल को देख अब लगता है ये को तपोभूमि नहीं पर्यटन स्थल हो रहा है..नदी के किनारे जिस बेरहमी से कंक्रीट का जंगल बना है वो न जाने भविष्य में क्या गुल खिलायेगा, लगता है मानो रोकने के जिम्मेदारों ने आँखे बंद कर रखी थीं/है.  जिस कुण्ड में दूर से पहुँच आस्था की डुबकी जगाई जाती रही है, उस स्थल की देखरेख में कार्पोरेट बनी रही यहाँ की  धार्मिक संस्थाओं की जवाबदारी क्यों नहीं निर्धरित कर दी जाती.मगर आज अमरकंटक में नींव का पत्थर उपेक्षा में है और कलश का पूजन हो रहा है.

यदि पर्यावरण के नाम पर कुछ किया है तो वो है अमरकंटक में नर्मदाजी के सरोवर बना दिए गए हैं पर ये उंगली दे कटा कर शहीदी में नाम लिखाने सा लगता है. जहाँ के खनिज का व्यावसायिक दोहन रोप-वे बना कर वर्षो हुआ हो, जहाँ के जंगल का वितान झीना हो गया हो उस पर अब रहम करने की जरूरत है. जो बचा गया है उसे बचाओ. बायोस्फियर बनाने से पहले इस नगरी को ‘हेरिटेज सिटी’ का दर्जा मिल जाना था. पर इस और न पहले प्रयास किया गया न अभी किसी की सोच है.

अमरकंटक के पुराने प्रतीक पर कैसी की नज़र नहीं, माई की बगिया में गर्मी के दिनों दलदल बना रहता मैं उसमें लकड़ी डालता तो खींच के निकलना मुश्किल होता, पर अब गर्मी के दिन दलदल सूख जाता है.गर्मी के दिनों दोपहर लू महसूस होने लगी है..जब-जब जाता हूँ निर्माण कार्य होते देखता हूँ. उसकी नैसर्गिता से खिलवाड़ मप्र का शासन दूर है. नर्मदा नदी के पहले जलप्रपात कपिल धारा के कुछ पहले वृहद निर्माण ठीक किनारे पर हो चुका है इसके पहले डेल्टा में आश्रम बन गया है..माँ नर्मदा पर बोझा बढ़ाते जा रहा है. सब आँखे बंद कर माँ नर्मदा की आरती कर रहे है,अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं.क्या ये नजरिया बदलेगा...लगता तो नहीं..!

कुछ और- नर्मदा नदी अमरकंटक से गुजरात तक करीब 1310 किमी का सफर तय कराती है. ये देश की पांच बड़ी नदियों में एक है,सर्व पुण्य दयानी इस नदी को रेवा या मेकल सुता भी कहा जाता है,जब तक साधना पूरी नहीं होती माँ नर्मदा के दर्शन अमरकंटक में न करे, साथ कबीर और गुरुनानक भी यहाँ मिले थे,इसकी परिक्रमा का विशेष महत्व है. 

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

अमरकंटक में निर्मित हो रहा भगवान आदिनाथ का मंदिर




अमरकंटक में नया बन रहा जैन मंदिर की भव्यता और सुन्दरता अब यहाँ जिज्ञासु को मोहने लगी है, मंदिर आकार ले रहा है और जैन धर्मावलम्बियों के साथ-साथ ये सबकी आस्था का केंद्र बना हुआ है, हो भी क्यों न यहाँ प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की 24 टन भारी अष्टधातु की प्रतिमा विराजित है. इसे आचार्य श्री विद्यासागरजी ने 6 नवम्बर 2006 को विधि-विधान से स्थापति किया गया है, प्रतिमा 28 टन के कमल पुष्प पर विराजित है वो भी अष्टधातु  निर्मित है.

इस प्रतिमा की के बाद में जब-जब अमरकंटक गया इन मंदिर के आकार ले स्वरूप को देंखने की जिज्ञासा को रोक न सका. एक-एक प्रस्तरखंड को राजस्थान से लाकर परम्परागत तरीके से गढ़ा जा रहा है. मंदिर के निर्माण में लोहे,सीमेंट का उपयोग नहीं कर गुड़ चूने का उपयोग हो रहा है. जब इस प्रतिमा को विराजित किया गया उस वक्त बिलासपुर के प्रतिष्ठित सिंघई जैन परिवार के प्रवीण, विनोद, प्रमोद जैन ने अमरकंटक पत्रकारों को ले जाने की व्यवस्था भी की थी.. एक बार उन्होंने राह दिखा दी फिर वो बंद नहीं हुई.

इस बार गुरु पूर्णिमा के पर्व पर अमरकंटक गया और जिज्ञासा इस मंदिर तक खीँच लाई. मंदिर नगरीय इलाके की करीब पहाड़ी पर तीन लाख वर्ग फिट के विशाल परिसर में अब दूर से ही बनता दिखाई देने लगा है.जब मैं पंहुचा तभी घंटी बाज़ी पता चला कारीगरों को भोजन की सूचना दे दी गई है.सब एक साथ भोजन करने जमा हुए.करीब पचास कारीगर कार्यरत थे. राजस्थान के इन कारीगरों  कुछ मुस्लिम भी उन्होंने बताया की वे पीढ़ी दर पीढ़ी मंदिर निर्माण का काम करते है. उनके मुखिया सबीर खान ने बताया मंदिर 151 फीट ऊँचा होगा. चौड़ाई 125 फीट लम्बाई 490 फीट होगी.

मंदिर का सिंहद्वार 51 फीट ऊँचा 42 फीट लम्बा होगा. इसे ओडिसी वास्तुशिल्प के अनुसार निर्मित किया जायेगा. पत्थरों में जान कितनी मेहनत से डाली जाती है ये वहां देखा जा सकता है. तभी तो मंदिर का एक के पत्थर आस्था से जुड़ा होता है. मंदिर 2015 तक मुकम्मल हो जायेगा पर जैन मुनियों के निरन्तर पधारने और आयोजनों से ये स्थली पूजित हो चुकी है.
[ अमरकंटक माँ नर्मदा नदी के पवित्र उदगम स्थली है, ये छतीसगढ़ के सीमा से लगा मप्र में है. पैंतीस सौ फीट की ऊंचाई पर इसकी हरी-भरी वादियां श्रधालुओं को सदियों से अपनी और आकर्षित करती आई हैं ]

सोमवार, 22 जुलाई 2013

टीवी से घर तक सांस्कृतिक प्रदूषण



अमरकंटक की ऊंचाई ने मुझे गहरे से प्रभावित किया है, पश्चिम वाहनी माँ नर्मदा की चंचल धारा देखने को जी ललचाता रहा है, अभी किशोर भी नहीं हुआ था की राजदूत बाईक से शिवरात्री के मेले पर अमरकंटक पंहुचा जाता.. में नवभारत में रहा तो एक बार तपस्वी बाबा कल्याणदास से पत्रकार वार्ता के दौरान उनकी सकारत्मक सोच देख कायल हो गया. गुरु पूर्णिमा में उनका प्रवचन सुना तब मैं कोशिश करता की इस दिन यहाँ पहुँच सकूँ, इस बार तो तबियत ठीक न थी पर प्रबल इच्छा ने यहाँ निजी साधनों से पहुंचा दिया.

अमरकंटक के प्रति मेरी दीवानगी की इंतिहा मई 1997 में हो गयी जब में दैनिक भास्कर में सम्पादक था, मैं रोज तड़के सूमो से पत्रकारों के साथ संत मुरारी बापू की नर्मदा के तट पर राम कथा सुनने निकलता और शाम आ कर रिपोर्ट बनता..अगले दिन प्रकाशित अख़बार को ले कर जाता ये सिलसिला नव-दस दिन चला..!

हरी-भरी वादियों में निर्मित अपने आश्रम में बाबा कल्याण दास ने गुरुपूर्णिमा के अवसर पर महिमा प्रतिपादित करते हुए, कहा- गुरु शिष्य को अंधकार से प्रकाश की और ले जाता है, इसलिए गुरु का संत्संग पुण्यदायी होता है, गुरु के सामने सब बच्चों के समान हैं. किसान मेहनत करके खेत करता है उसके खरपतवार को नष्ट करता हैं. फिर जब फसल पैदा होती है तो वो हर्षित होता है..इस सब ने उससे किसी किसी का मार्ग मार्ग दर्शन जरुर होता है.

आज घर-घर टीवी सांस्कृतिक प्रदूषण पैठ कर रहा है,आरती के वक्त टीवी चलता है,बच्चे कहते हैं आरती तो बाद में हो सकती है पर चैनल में ये फिर नहीं आएगा ..! बाबा ने आगाह किया की वक्त है की भारत अपने मूल्यों की रक्षा करे. इसमें गुरु का योगदान सभी मानते हैं. गुरु ही मानव को उसकी ऊंचाई तक ले जाता है,
गुरुपूर्णिमा के पुनिया अवसर पर हिमान्द्री मुनि जी राजेन्द्र बह्म्चरी, स्वामी निरजन मुनि,नेपाल से पधारे pro सुरेश शर्मा स्वामी महेश्वरनन्द के अलावा रायपुर के डमरूधर अग्रवाल. भुनेश्वर के रमेश कुमार अग्रवाल, सहित अनेक श्रद्धालु महिलाये और पुरुष शामिल थे इस अवसर पर बाबा कल्याण दास ने भगतों को दीक्षित किया गया..!

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

अरपा,कहीं मुंबई की मीठी नदी न बन जाए





   अरपा नदी को लन्दन की टेम्स नदी अथवा गुजरात की साबरमती के समान बनाने वाले कहीं मुम्बई की मीठी नदी ना बना दे,  इस बात की आशंका बिलासपुर में बलवती होती जा रही है. अरपा ही नहीं देश के कई नदियाँ,अब नाले बन गई हैं, इनमें 144 नदियाँ चिन्हित हैं.  अरपा महतारी की दशा भी बुरी है, बेहिसाब बढ़ता शहर इसके जलस्रोतों की खींच रहा है. कूड़ा नदी में फेंका जा रहा है, नालियों का पानी नदी में पहुँच रहा है. बेहिसाब रेत निकली जा रही है,  साल में नौ माह लगभग सूखी, गर्मी में तपता रेगिस्तान  सी उसकी रेत और सूखी नदी. कौन भले नहीं चाहेगा  उसकी नदीमाँ’ का सौन्दर्य निखरे, वहीँ कौन ये चाहेगा कि, ‘नदी माँ’ के स्वरूप को ऐसा विकृत कर दिया जाए कि बाढ़ आने पर वह मुंबई की मीठी नदी की भांति विनाशलीला रचे.

   जिस नदी के किनारे चार-पांच लाख की आबादी सुख चैन से रह रही है, वो करोड़ों रूपये के खर्च बाद कहीं हर बरसात में बाढ़ के पानी के घर में आने की आशंका साथ लाए तो ये बड़े दुर्भाग्य की बात होगी. नदी को रुपांकर देने के लिए प्राधिकरण गठित किया जा चुका है और नदी के दोनों किनारे दो-दो सौ मीटर भूमि को अधिसूचित घोषित कर इस भूमि  पर निर्माण कार्यों, तथा जमीन खरीदी-बिक्री पर रोक लगा दी गई है.  प्राधिकरण के दफ्तर में अरपा बैराज परियोजना संबधित और कोई जानकारी नहीं, उसके लिए सिंचाई विभाग जाना पड़ेगा, कुल मिलाकर अभी कोई तालमेल इन दफतरों में न होने के कारण परियोजना के सही स्वरूप की जानकारी नहीं मिलती और न ही उसके प्रारूप का प्रकाशन हुआ है. इस लेखन का उदेश्य ये है कि यदि कोई बात योजनाकारों को भाए तो इसमें उठे सवाल पर नजर डाल कर आवश्यक सुधार कर सकें. यद्यपि ये मुद्दा आसन्न विधान सभा चुनाव में चुनावी मुद्दा बन सकता है पर उससे अधिक अहम इस लिए है की ये मसला लाखों ‘बिलासपुरकरों’ के भविष्य से जुड़ा हुआ है.

   अरपा- भैसझार परियोजना सौ साल से अधिक पुरानी है. इसका नाम और स्वरूप बदल कर फिर ये पेश है..? 19 वीं शताब्दी के साथ इस अंचल में अकाल की विभीषिका से अंग्रेजों के तीन सिंचाई योजना बनाई. मनियारी नदी पर खुडिया, और खूंटाघाट तो पूरी कर ली गई पर अरपा नदी को बांधने की योजना पर कोई काम न हुआ. इंजीनियर वार्डले के मार्गदर्शन में 1925 में इसका सर्वे पूरा कर लिया गया. फिर योजना फाईल में कैद हो गई . अविभजित मप्र के दौरान इस योजना का शिलान्यास भैन्साझार में मुख्यमंत्री वीरेंद्र सखलेचा, और फिर पं.श्यामाचरण शुक्ल ने किया. किसी कब्र के पत्थर की तरह योजना के शिलान्यास वहां की पहचान वहां बनी रहे. अब तीसरा शिलान्यास होने वाला है.

   पहले इस योजना का नाम था- ‘अरपा जलाशय वृहत परियोजना !’’
ठन्डे बस्ते में चली गई इस परियोजना की जानकारी ये हैं -
*जल ग्रहण क्षेत्र - बांध की ऊंचाई-29.62 मीटर..
*बांध की लम्बाई -.6565 मीटर..
*जल ग्रहण क्षेत्र - 1693.86 वर्ग किलोमीटर

* की ऊंचाई - 29.62 मीटर..

*बांध की लम्बाई -.6565 मीटर..
*डूब में आने वाले गाँव - 27
*लाभन्वित गाँव -263
*सिंचाई क्षमता  - 73000 हैक्टेयर [सरकार को ये साफ करना चाहिए की क्या इस
परियोजना को तिलांजलि दे दी गई है अथवा, प्रस्तावित बैराज में यहाँ से पानी आएगा.]

   अरपा की प्रस्तावित नई योजना – नाम,..अरपा भैन्साझार बैराज परियोजना.
   1.कुल भूमि.. 653.91 हैक्टेयर,इसमें वन,442.69 हैक्टेयर निजी..56 हैक्टेयर,शेष सरकारी.
   2.बैराज की ऊंचाई—12.5 मीटर.
   3.सिन्चित रकबा-  25 हज़ार हैक्टेयर.कोटाब्लाक का जोगीपुर, तखतपुर के 64 और बिल्हा के 27 गाँव..!
   4.कुल लागत. 606.63  करोड़ रुपए.

   ये समस्त आकड़े जुटाए गए हैं योजना का प्रारूप सामने आने पर वस्तुगत स्थिति पता लगेगी. चूँकि बैराज की ऊंचाई पहले की तुलना में कम है, इसलिए आज के दौर के लिए उपयुक्त मनाई जानी चाहिए. परन्तु अरपा नहीं के साथ जो खिलवाड़ करके नदी के मौलिक स्वरूप के साथ जो  छेड़छाड़ प्रस्तवित है वो इंगित करती है कि हम मुंबई की मीठी नदी की और कदम बढ़ा रहे हैं.
मुंबई की मीठी नदी महानगर का पानी समुन्दर तक पहुंचती है ,वषों से उसके आकार के अनुरूप भरपूर पानी न आने के वजह इस नदी की भूमि के किनारों हथिया लिया गया. किनारों में उगे मंग्रो के हरे पेड़ों को काट दिया गया. पर्यावरणवादियों ने जब विरोध किया तब उनको ‘विकास विरोधी निरुपित’ किया गया. नतीजा मीठी नदी का कड़वा सच ये निकला जब 26 जुलाई 2005 जब मुंबई में जमकर बारिश हुई तो इस नदी का कहर ‘मुंबईकरों’ पर भारी पड़ा गया. अब हर  बरसात में उनका जीवन पटरी से उतर जाता है, मीठी नदी को गहरा और चौड़ा करने की आवश्यकता वे मान रहे है. पर ये मुमकिन नहीं. सालों से इस काम में करोड़ों व्यय हो रहे हैं. पर कोई हल नहीं निकला सका है.

   अरपा जलाशय वृहत् परियोजना का उद्देश्य इस इलाके कई भूमि को सिंचित करना था,पर अरपा भैन्साझार बैराज का उदेश्य कुछ और है, जिसमें गाँव लोफंदी से दोमुह्नी कुल 18 किमी तक रिटर्निग वाल बनाई जाएगी. वर्तमान बिलासपुर में इंदिरा सेतु में अरपा के चौड़ाई करीब पांच सौ मीटर है. जो समाचार आ रहे हैं उनके मुताबिक नदी की जमीन हथिया ली जाएगी और अरपा 250 मीटर में ही बहेगी. इसके पहले ‘सिम्स’ के लिए किनारे की जमीं हथिया ली गई है.अब हथियाई बेश कीमती जमीन पर क्या-क्या बनेगा ये बाद की बात है.

अरपा पहाड़ी नदी है. पेंड्रा के करीब अमरपुर,खोड्री से बेलगहना तक के घने जंगल का पानी नदी-नालों से होता हुआ इसमें मिलता है. पहाड़ी नदियों की तासीर अलग होती है, पानी तेजी से आता है और फिर उसी तेजी से खाली हो जाता है. इसमें वषों की औसत बारिश के आकडे कोई काम नहीं आते. बिलासपुर में बढती आबादी की आवश्यकता की वजह शहरी इलाके में लगे शक्तिशाली पंप रात दिन इसके जल को खींचतें हैं, जिस वजह शहरी इलाके में नदी सूखी रहती है और शेष इलाके में कुछ बहाव बना रहता है. यही दशा अरपा के उदगम स्थल के साथ है. जहाँ अमरपुर में दलदली भूमि थोड़ी बची है और नदी का उदगम पता नहीं लगता. इस जगह को परियोजना क्षेत्र से न जाने क्यों बाहर रखा गया है.

1.सन 1953 के आसपास अरपा की बाढ़ को लोग याद करते हैं, जब नदी का पानी सिटी कोतवाली में भर गया था. अब अरपा जमीन हथियाने के बाद शेष नदी आकार की तकरीबन आधी होगी. इसलिए वैसी बाढ़ में के नदी [नाले] का पानी स्टेशन तक क्या नहीं चला जायेगा..?

2.टेम्स नदी के सामन यदि अरपा में पानी सारे-साल रुका रहा तब ये पानी तो प्रदूषित होगा और शहर के ज्वाली नाले और नालियों में पानी चढ़ा रहेगा..ये मच्छरों की नर्सरी के में विकसित होगा [शहर के आगे अरपा पर बरखदान में बना एनिकट इसकी मिसाल है ]

3. मीठी नदी के हश्र ना देख कर हम टेम्स नदी के सपने क्यों देख रहे हैं, जबकि मुम्बई अपने किये का फल हर साल भुगत रही है,.!

4,योजना के सलाहकारों और काम करने वाली कम्पनी यहाँ कमाने आ रही हैं ,वो कमीशन तो दे सकतीं है, पर नगरीय इलाके के बाढ़ से  प्रभावित न होने की जवाबदारी और देनदारी क्या अपने पर लेंगीं.

5.किसी नदी के मौलिक स्वरूप को इस कदर छेड़छाड़ करना क्या सुप्रीम-कोर्ट के निर्द्शों के क्या खिलाफ नहीं.

6.जब वर्षा अधिक होगी तो बैराज से पानी नदी या केनल में छोड़े जाना बाध्यता होगी, तब केनल के पानी की जरूरत खेतों में नहीं होगी  और संकरी नदी के तट बंधन को पार करता हुआ पानी शहर में पहुँच जायेगा. शहरी इलाके में आधा दर्जन पुल अरपा की धारा में अवरोधक बने हैं,जो इस समस्या को बढ़ने मददगार होंगे.

अरपा नदी इस इस अंचल की जीवन रेखा है यदि कदम गलत उठा तो वो कदम वापस नहीं हो सकता.! 
[पहली फोटो टेम्स नदी की नेट से,शेष फोटो और रपट-प्राण चड्डा] 

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

दूबराज चावल,खोजो तो नहीं मिलता



  धान के कटोरे से छतीसगढ़ की पहचान दूबराज चावल अब किसी भाग्यशाली के घर में ही मिले. दूबराज के सामने बासमती भी गुणवत्ता में कम बैठता था. दूबराज के बाद अब छोटे दाने वाले चावल, जवाफूल, [अंबिकापुर-लेलूँगा,बस्ती-बगरा], विष्णुभोग, [गौरेला-पेंड्रा] भी खतरे की जद में आ चुके हैं. ये दौर है चावल के बाज़ार में एचएमटी का जो कई रूप में उपलब्ध है. सुगन्धित चावलों के दिन तो गुजरे ज़माने की बात हो चली है.

 छतीसगढ़ से राईस रिसर्च सेंटर का बंद होना और फिर डा. रिछारिया का न होना ऐसी क्षति रही जिसकी भरपाई नहीं हो सकती. उधर एक के बाद के धान की नई प्रजातियाँ खेतों तक पहुँचाना शुरू हो गई. लालच था कम दिनों में अधिक पैदावार मिलेगी. पर ये पैदावार परम्परागत धान की किस्मों पर महंगी साबित हो गई. एक मेड़ के फासले में नई प्रजातियाँ और दूबराज सा शानदार धान बोया जाने लगा. जिससे किनारे लगा  दूबराज का बीज परम्परागत मौलिकता खोता गया. अगली बार जब-जब इस तरह ये बीज फिर बोया जाता रहा तब-तब सुगन्धित धान ख़त्म होते गया.

  जल्दी पकने वाली धान की प्रजातियों के खेतों में आ जाने के कारण देर से फसल देने वाली देसी सुगन्धित धान से किसानों का ध्यान हट गया. महामाया, १०१०, १००१,किस्में एक सौ बीस दिन के आसपास कटाई के योग्य हो जाती हैं, स्वर्णा, इसके कुछ दिन बाद.इसके साथ हाइब्रिड धान ६४४४-गोल्ड,6129 ‘धनी’ जैसे धान की प्रजातियाँ बाजार में आई जो जितना खाद उतनी पैदावार,पर कीटप्रकोप साथ बोनस में. खेती के क्षेत्र में बाजारवाद प्रभावी हो गया. ये धान दूबराज से जल्दी खेत खाली कर देते और पैदावार भी अधिक देते. गांवों में इसके बाद मवेशियों को खेतों में चराई के जाने का मौका मिल जाता है, फिर यदि देर से तैयार होने वाली दूबराज की फसल खेतों में खड़ी रही तो किसान हो फसल बचाने रखवाली करना अतिरिक्त कार्य बन जाता है .नतीजतन दूबराज धान का उतपादन  का रकबा कम होता गया. नगरी-सिहावा का दूबराज दूर-दूर तक प्रसिद्ध था.

  सुबह किसान खेतों से गुजरते तो इस धान की सुगंध मन मोह लेती,पर आज लीपापोती का दौर है,कुछ बारीक़ चावल को एसेंस से सुगन्धित चावल बना दिया जाता है ,ये चावल बिक तो जाता है, मगर बनाने के बाद न सुगंध न स्वाद. कुछ तो ये कहते हैं की चावल में स्वाद होता ही कहाँ है स्वाद तो मसालों और नमक,मिर्च में होता है जो सब्जी में प्रयुक्त होते हैं. शायद उन्होंने पुराने दूबराज का स्वाद नहीं चखा.

 आज छतीसगढ़ में रिकार्ड धान उत्पादन होता है, और समर्थन मूल्य पर रिकार्ड खरीदी पर इसमें एक बड़ी त्रुटि हो गई है यदि सरकार राज्य की अस्मिता से जुड़े दूबराज धान खरीदी का लाभकारी समर्थन मूल्य अलग तय करती तब इस धान की प्रजाति इस तरह लुप्त न होती. हो सकता है, किसी किसान की कोठी में आज भी सही दूबराज हो, उस किसान से बीज मोल ले कर इसको बचाने-बढ़ने का अंतिम प्रयास किया जा सकता है,अन्यथा देर हो जाएगी, जैसे दूबराज लुप्त हुआ वैसे ही जिन, छोटे सुगन्धित चावलों पर लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है वो भी एक-एक कर लुप्त होते जायेंगे..! विरासत पर छाये इस खतरे से निपटने राज्य सरकार को हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठना चाहिए.

कुछ और..

मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में 5 हज़ार साल पुराना धान मिला है.अथर्ववेद और कौटिल्य की रचना में चावल का उल्लेख है. महर्षि कश्यप ने शाली [धान] की 26 किस्मों के बारे में लिखा और इसकी खेती के तरीके बताये. चीन और जापान चावल के पुराने भी उत्पादक हैं, सिकन्दर वापसी के दौर धान फ़लस के लिए के कर गया. आज विश्व में सभी अनाज में धान की पैदावार सबसे अधिक है. [फोटो गूगल से साभर]