रविवार, 30 जून 2013

बीआर यादव,मेरे पथ प्रदर्शक



कोई बिरला ही होता है, जो जमीं से उठ कर बरसों सत्ता पर आरुढ़ रहे और उसके पैर जमीं पर जमे रहें. वो सर्वसुलभ हो और अपने मूल्यों पर भी जीता हो, जिसने न जाने कितनों की मदद की और मार्गदर्शन -देकर उनके जीवन की यात्रा को सुगम बना दिया. मैंने अपने जीवन में ऐसे चंद महामानव ही देखें हैं, इनमें नवभारत की पत्रकारिता से दो दशक से अधिक जुड़े रहे और फिर लम्बे समय तक अविभजित मप्र में मंत्री रहे बीआर यादव को शीर्ष स्थान पर  मानता हूं. उन्होंने जीवन में 83 बसंत देख लिए और जब उनके गृह नगर बिलासपुर में 84 वां जन्म दिन मनाया गया, तब हाल उनके चाहने वालों से भरा था. जो उनकी नेक कमाई को रेखांकित कर रहा था.

 बरसों पहले जब ‘नवभारत’ रायपुर से प्रकाशित होता और बिलासपुर सुबह ट्रेन से पहुंचता, बात तब की है, मैं कालेज में छात्र नेता था, देर रात का समाचार न प्रकाशन होने पर हम कुछ छात्र उग्र हो कर  स्टेशन पंहुचा गए और बिलासपुर के समाचारों की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए प्रदर्शन किया. बीआर यादव वहाँ मौजूद थे, उन्होंने हमें बताया, फोन लाइन खराब न होने के कारण 'काल देर से लगता है और तब तक अख़बार छप जाता है. यहाँ मेरा उनसे परिचय हो गया जो फिर  बढ़ता गया. यादवजी जब राजनीति की व्यस्तता के कारण भोपाल में रहने लगे और मैं पत्रकारिता में लोकस्वर से होता हुआ नवभारत के बिलासपुर कार्यालय में श्री महेंद्र दूबे जी का सहयोगी के रूप में काम करने लगा. फिर के दिन यादवजी ने मुझे  साथ  रायपुर ले जा कर नवभारत के सम्पादक गोविन्दलाल वोराजी से घर में मिलाया. रघु ठाकुर से भी वहीं परिचय हुआ.

समय बीतता गया, कोई दस साल बाद ‘नवभारत पत्र समूह’ से मैं दैनिक भास्कर समूह में आ गया,और बिलासपुर से प्रकाशित होने वाले संस्करण का संपादक बन गया. कुछ समय बाद यादवजी मध्यप्रदेश के वन मंत्री बने, वो वन्यजीवों के प्रति मेरी अभिरुचि से परचित थे, बातों ही बातों में मैंने उनसे बिलासपुर के गेमवार्डन बनाने की इच्छा रखी, अगली बार वे जब भोपाल से बिलासपुर आये तो मुझे उन्होंने बताया कि मेरी नियुक्ति प्रदेश वाइल्ड लाइफ बोर्ड में सदस्य के रूप में हुई है, बैठक कुछ दिनों बाद होगी. मैंने कहा- मैं गेमवार्डन बनाना चाहता था, अपने मुझे ये क्या बना दिया. बाद पता चला कि गेम वार्डन की नियुक्ति तो ये बोर्ड करता है.

 यादव जी का विराट रूप जो मैंने देखा-

बोर्ड की पहली बैठक भोपाल में हुई, यहाँ मैं यादवजी के विराट रूप से परिचित हुआ, इस बोर्ड में देश में जाने-माने वन्यजीव के विशेषज्ञ थे, जिनमें, बिट्टू सहगल, वाल्मिक थापर, बिलिंडा राइट, एम्.के रंजित सिंह साहब, कमोडोर संजना, पन्ना के लोकेन्द्र सिंह, जे.जे दत्ता. राजेश गोपाल, हम कुछ होटल पलास में पहुँच जाते और बैठक से पहले विषय सूची कि बारीकियों पर चर्चा करते, बाद रीवा के पुष्पराज सिंह और दमोह के रत्नेश सोलोमन भी जुड़े. जब कभी टाइगर के संरक्षण पर कोई मुद्दा बिट्टू सहगल और वाल्मिक थापर अथवा किसी के बीच उलझ जाता तब अंतिम फैसला चेयर पर्सन व वन मंत्री बी आर यादव को करना होता. वो वन्य जीवों के बारे में उनकी बराबरी तो नहीं कर सकते थे, पर पत्रकारिता से मिले सहज ज्ञान और विवेक से हल खोज लेते की पूरा बोर्ड उसको दिल से स्वीकार करता. तब मेरी आँखे ये सोच कर नम हो जाती की बिलासपुर का कोई व्यक्ति ये सब कितनी सफलता से करता है. मप्र के बाद में छतीसगढ़ राज्य अब तक वाइल्ड लाइफ बोर्ड का मेम्बर रहा हूँ, इस दौरान मैंने बोर्ड में उन सा दक्ष वन मंत्री नहीं देखा..! उनकी वजह मुझे मुंहबोली बहन, वीणा वर्माजी  [धर्मपत्नी श्रीकांत वर्मा] मिलीं.

बिलासपुर के हकों कि लड़ाई के लिए वो सकारात्मक प्रयास जारी रखते, गुरुघासीदास यूनिवर्सिटी, रेलवे जोन  या कोल कम्पनी एसइसीएल की स्थापना, सबके पीछे यादवजी का भूमिका अहम् रही. न जाने  कितने ही व्यक्तियों को उन्होंने पहचाना और उनकी प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया. यही वो वजह है कि आज भी उनके चाहने वालों की कमी  नहीं, आज के नेता चार भले आदमी आपने साथ जुटा नहीं सकते उस दौर में यादव जी के जन्मदिन समारोह में हर तबके के  नागरिक 30 जून को शुभ कामना देने हाजिर थे.

बुधवार, 26 जून 2013

रतन जोत, जो बुझ गई



खाड़ी से नहीं बाड़ी से डीजल, ये नारा अब सरकार को नहीं भायेगा क्योकि  रतनजोत लगाने की जोत बुझ गई है.. करोड़ों रूपये पानी में जा चुके हैं..ये आम जनता से टेक्स का रूप में वसूली राशि थी.हाँ बंदरबाँट में नौकरशाह और बिचोलियों ने जरूर जम कर चांदी पीटी है..! इस योजना के सूत्रधार पर भी कोई करवाई नहीं हुई.


रतनजोत [जेट्रोफा करकस ] को बायोडीजल के लिए२००९ में चुना गया..थोड़ा प्रयोग के तौर पर लगाया जाता. पर ये न किया गया. जुलाई २०१० तक छत्तीसगढ़ में १ लाख ६६ हज़ार हैक्टेयर में ये बोया जा चुका था. रोजगार गारंटी योजना सहित दीगर मद के दरवाजे इस के लिए खोले जा चुके थे'' फिर खबर आई सी.एम डा. रमन सिंह की कार बायो डीजल से चल रही है... शताब्दी एक्सप्रेस भी बायो डीजल से चलेगी..पर योजना की हवा निकलते देर न लगी..


रतनजोत की बीज को खा के अचेत हो गाँव के छात्र अस्पताल पहुँचने लगे. पड़त भूमि पर लगाया रतनजोत गर्मी में सूख गया..[ कई जगह अब वहां सागौन लगाया जा चुका है]अब नेट पर खबर थी,कि अफ्रीकी देश की तरह भारत में भी बायो डीजल बनने की योजना फ्लाप..!


सवाल ये है की जिन योजनाकारों ने ये न जाने कितने करोड़ की बर्बादी कराई ,उनपर करवाई क्यों नहीं,आज जहाँ रतनजोत फलता है तो कुछ दिनों बाद खबर आती है उसके बीज खा कर बच्चे अस्पताल पहुंचे..एक सरकारी योजना का दुखद हश्र ऐसा होगा ये सपने दिखने वालों ने भी कदाचित नहीं सोचा होगा.!

रविवार, 9 जून 2013

पत्रकार सुशील पाठक हत्याकांड,सीबीआई की टीम आरोपों में घिरी




कुछ मौत पंख सी हल्की होती हैं, तो कुछ पहाड़ से भारी, मेरे साथी पत्रकार सुशील पाठक का बिछड़ना मेरे लिए पर्वत से भारी है. ढाई साल हो रहे ये मौत मेरे ह्रदय में शूल के सामान बनी है, ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब उसकी याद न सताती हो. उसकी हत्या से जो सूनापन मेरे जीवन में छाया उसको भरा फिर मैं भर नहीं सका . सबसे अजीब तो ये है कि उसकी हत्या आखिर क्यों की गई. राजधानी पुलिस के विशेष दल के बाद सीबीई भी इस कारण को आज पर्यन्त नहीं खोज सकी है. इस मामले का ठोस सूत्र देने वाले को सीबीआई पांच लाख रूपये इनाम देने की घोषणा कर रखी है.

सुशील पाठक की हत्या का ताना-बना जिस पेशावर तरीके से बुना कर अंजाम दिया गया है, उसे सुलझने में सीबीआई भी क्या हार जाएगी तो फिर इसे कौन सुलझाएगा... बात कोई पंद्रह साल पीछे जा के शुरू कर रहा हूँ, जब मैंने सुशील को परखा.. मैं दैनिक भास्कर में संपादक था, देर रात बाहर  जाने वाले संस्करणों का प्रकाशन बाद मैं घर आ चुका था, कोई दो बजे रात मुझे किसी ने फोन पर सूचना दी कि गीतांजलि एक्सप्रेस ट्रेन गतौरा के पास दुर्धटनाग्रस्त हो गई है. तब न तो मोबाइल का युग था और न ही भास्कर का कार्पोरेट स्वरूप. मैंने प्रेस में फोन कर नगर संस्करण की छपाई रोकने को कहा और कैमरा लेकर रिलीफ ट्रेन से मौके पर पंहुचा.. और  भी पत्रकार पहुँच गये थे . हम सब वापस भी इसी ट्रेन से आये, तब सुशील पाठक जीआरपी थाने के फोन से अपनी प्रेस लोकस्वर में समाचार देने लगा. मगर उधर से जवाब मिला अख़बार छप रहा है छपाई नहीं रुकेगी ..! वो मायूस हो गया- मैंने सुशील से कहा, मेरे पास स्टाफ की कमी है, यहाँ तेरा कोई यहाँ  सुन नहीं रहा, तू मेरे साथ काम कर और अगले दिन वो दैनिक भास्कर परिवार का हिस्सा हो गया ..!

सुशील उत्साही और आज में जीने के चाहत रखता था ,शतरंज, कैरम, क्रिकेट का वो बेहतरीन खिलाड़ी था. ये भी कहा जा सकता है कि खेल की भावना उसके जीवन में समाई थी. मेरे पर मानहानि के मुकद्दमें खड़े हो रहे थे, मैं उनसे  बचने का प्रयास करता, सुशील ने कहा-जब तक संपादक हो बचाते रहोगे, पर बाद ये मामले भुगाने होंगे तब अकेले होगे. मैंने पलायनवादी रुख बदल दिया और प्रकरण निपटने में लग गया. रात हम भोजन साथ करते, फिर टहलने जाते. तेज चलते बातें करते हुए. गोलीकांड का दो दिन पहले उसने मुझसे कहा कि  वो भी मेरे तरीके से जीवन चलाना चाहता है.कार का कर्ज अदा कर दिया है, मकान बन गया है, अब चिंता रहित जीना है.

शनिवार को उसका 'विकलीआफ' था पर वो प्रेस थोड़ी देर के लिए दिखा, रविवार मैं  'विकलीआफ' लेता.. मैं उस रविवार जंगल गया था. वो 19 की दिसम्बर की कड़ाकेदार ठण्ड की रात थी. देर रात में वापस आया और सोने की तैयारी क़र रहा था कि प्रेस से नवीन लदेर का फोन आया, उसने बताता कि सुशील को किसीने गोली मार दी जब वो सरकंडा स्थित अपने घर पहुँचने वाला था. मेरे पास समय न था, मैं तुरंत कार से मौके पर पहुँच गया..!

जो मैंने देखा और बाद समझा –

 सुशील की कार नीम के पेड़ के नीचे खड़ी थी, दरवाजा बंद न था. जाहिर था कि घात लगाये हत्यारों को सुशील ने देखा लिया था और जान बचाने के लिये भागने में दरवाजा बंद करने का मौका उसे न मिला. उसने सड़क पार कर घर भागने की कोशिश की पर बीच सड़क तक ही जा सका था. ये भी संभव है कि  हत्यारों ने उसे वहां पकड़ लिया हो, क्योकि एक गोली तो करीब से दागी गई थी बाद पता चला कि  गोली के साथ नाल से निकले बारूद से उसकी स्किन जल भी गई थी. हत्यारे एक से अधिक रहे होंगे सुशील किसी एक के हाथ आने वाला न था,जितनी गोलियां लगी उससे ये साफ़ है की हत्या ही उनका मकसद था. वो जाते समय उसका सिम सहित मोबाइल ले गए.

मौके से सुशील को हटाया जा चुका था, और सड़क से खून धो दिया गया था. इस स्थान को यातायात के लिए तुरंत  खोल दिया गया था, जबकि चली गोलियों के ‘शैल’ कुछ लोग उठा के देख रहे थे. पुलिस के अधिकारी मौके पर थे, मैं आईजी अरुण देव गौतम को पहचान गया और उनको अपना परिचय दिया, क्राईम रिपोर्टर चन्द्रकुमार से उनकी बात कराई ताकि वो कुछ जानकारी दे सके..बाद मैं आईजी के साथ नीम के पेड़ के नीचे गया, यहाँ एक पुजारी ने घर में प्रतिमा स्थापित की है, उसका उसका दरवाजा खटखटा के खुलवाया, पुजारी का कहना था कि, वो ग्यारह बजे सो गया था उसे कुछ नहीं पता. पर ये भला कैसे हो सकता है कि उसके घर के दस मीटर दूर गोलियां चले और उसकी नींद न टूटी हो..! फारेंसिक एक्सपर्ट कैलाश चौधरी मुझे कहीं नहीं दिखे तब मैंने आईजी साहब से पूछा तो पता चला वे रिटायर्ड हो गए हैं ..मैंने निवेदन किया उनको बुलाया जाए. आईजी ने तुरंत एसपी को उनको बुलाने कहा. परिस्थियाँ जो सबूत देती उसको बचाने कोई प्रयास होते नहीं दिखा ..!

रात प्रेस का काम ख़त्म कर पत्रकार मौके वारदात पर पहुँचते गए सबसे पहले पुलिस को जानकारी देने वाला पत्रकार सुरेश पांडे के अलावा,पहले पहुँचने वालों में दैनिक भास्कर के संपादक मनीष दवे, सपत्नीक शशि कोन्हेर,यशवंत गोहिल, हर्ष पाण्डेय, कमलेश शर्मा, प्रतीक वासनिक, नवीन लदेर,पारस पाठक, यासीन, शरद पाण्डेय, सुब्रत पाल, वोम्केश त्रिवेदी,दीपक तम्बोली,अनूप पाठक, एम् मलिक, फोटोग्राफर,जीडी नागरवाला. शेखर गुप्ता सहित अनेक ने सारी रात आँखों में काटी. ये भी पता चला कि रात मनीष दवे, सुशील पाठक और एक डाक्टर रात होटल में साथ थे. कई चर्चा में भोर हो रही थी, पुलिस खोजी कुत्ता  लेकर  पहुंची, तभी प्रवीण शुक्ला पहुंचे मैं घर जा रहा था, प्रवीण ने रुकने कहा- मैंने जवाब दिया कि सारी रात यहाँ सब रहे अब न जाने ये कुत्ता किसी को पकड़ ले ..!

सुशील की हत्या के बाद जितने मुंह उतनी कहानियां, सूचनाओं का तूफान आ गया फिर ये तूफान शांत हुआ पर कुछ कहानियां अब भी तैर रहीं हैं. सीबीआई भी यहाँ पड़ाव डाले रही, मेरे सहित कई का बयान दर्ज हो चुका है. पर कोई नतीजा नहीं निकला..क्या सीबीई इस गुत्थी को सुलझने में आखिर  हार जाएगी, सुशील के हत्यारे आजाद घूमते रहेंगे, इस पेशावर ‘सुपारी किलिंग’ के  पीछे किस का हाथ है. कभी पता नहीं लगेगा..? इन सवालों के जवाब के लिए भविष्य का झरोखा खुलना शेष है.वो बिलासपुर प्रेस क्लब का सचिव था, आज भी कोई दिन नहीं जब प्रेस क्लब में सुशील को याद न किया जाता हो. मगर ये आशंका बलवती होती जा रही है कि, मामले की गुत्थी सुलझने में देरी हो रही है,और हार कर सीबीआई  क्लोजर रिपोर्ट फ़ाइल् तो नहीं करने वाली है. यदि ऐसा हुआ तो उसकी आत्मा को न्याय नहीं मिलेगा और बिलासपुर के पत्रकारों में  वेदना बनी रहेगी .

असफलता दर असफलता -

·         पुलिस ने सुशील के घर करीब रहने वाले बादलखान को पुलिस ने आरोपी बनाया पर हत्या के   कारण की  कहानी थी, जमीन का विवाद ,पर वारदात में प्रयुक्त पिस्टल  और पाठक के मोबाईल व सिम न बादल खान से  बरामद कर सकी. चालान न पेश करने के कारण बादल खान जमानत पर रिहा हो गया. यदि बादल खान ने हत्या नहीं की थी तो उसने पुलिस से सामने कबूला क्यों,सवाल है कि क्या वो किसी का "मोहरा" है ..?

·         सीबीआई की जाँच के दौरान सीबीआई का सहायक उप निरीक्षक लक्ष्मी नारायण शर्मा अपने साथी  कथित निजी जासूस तपन के साथ ठेकेदार से दो लाख इसलिए ठेकेदार राम बहदुर सिंह से वसूलते सीबीआई विजेलेंस के हांथों पकड़ा गया. उनपर आरोप है कि वे ये रकम सुशील हत्याकांड में फंसा देने का भय दिखा के ले रहे थे. ये रकम वसूले जाने वाली दस लाख रकम की पहली क़िस्त थी.इस मामले के आरोपी जमानत पर रिहा हैं.
*रिश्वतखोरी के इस मामले में 9 जुलाई 2013 को सीबीआई के एएसपी डीके राय को भिलाई सीबीआई की टीम ने दिल्ली में बंदी बना लिया है.
[ सभी  फोटो नेट से,अंतिम फोटो- रिश्वत के आरोप में पकडाए सहायक उपनिरीक्षक शर्मा और निजी जासूस तपन  -प्राण चड्ढा ]



बुधवार, 5 जून 2013

आसमान छूने की, छोटी सी आशा



 दूर-दराज की बालिका अब अनंत-आकाश में उड़ान चाहती हैं.  वे भी आकाश में अपना हिस्सा चाहती पर मांग नहीं रही हैं, उनके मन में भी इस चाह के अंकुरण प्रस्फुटित हो रहे हैं, दो बालिकाओं को मैं  दूर से देख रहा था, पहले मुझे लगा कि वो हाथ पकड़ के खेल रही हैं. फिर एक ने उसे गोल घुमाते हुए दूसरी को अपनी और खींचा, वो करीब आ कर पीठ की और झुक गई, जिसने उसे अपनी तरफ खींचा था उसने पीठ के नीचे हाथ रख कर सहारा दिया..अब समझ में आया की वो तो नाच रही हैं . ठीक नर्गिस-राजकपूर की तरह की मुद्रा में दोनों थी. उन्होंने बड़ी खूबी से इसे अंजाम दिया था. बिलकुल ‘आरके’. के ‘लोगो’ की सामान वो कुछ पल बनी रहीं.

मेरे पास तब कैमरा नहीं था ,कुछ देर बाद मैंने उनकी फोटो खम्हार के ऊँचे पेड़ों के बीच ली, छोटी इन  बालिकाओं के अभिलाषा मुझे इन पेड़ों से ऊँची लगी. ज़रूर उन्होंने टीवी में ये नृत्य देखा होगा और भा गया होगा.  मगर कुछ साल पहले ऐसा नहीं था. तीन साल में दो बच्चों की दर से ग़ुरबत में गरीब की संतान बढ़ती, अगर घर में ‘छोटी’ और ‘बड़ी’ होती तो पैदावार की गति भी दूनी होती. पसीना बहाकर रोटी कमाने वाले इस वर्ग की नियति में विधाता ने बेरहमी से लिखा है कि, घर के हर सदस्य को दो जून की रोटी के लिए मेहनत से जुटे रहना होगा. इसलिए परिवार के बड़े सदस्य जब मजदूरी के लिए जाते तो घर का सारा कम आठ-दस बरस की इस ‘छोटी माँ’ पर होता. स्कूल का दरवाजा देखना तो दूर उसका बचपन खेलने के लिए भी तरस जाता.

मगर ये बदलाव का दौर है, अब बचपन खेल रहा है और खेल में नाच रहा है. मगर जंगल के मोर को नाचते देखने का सौभाग्य विरले को हो प्राप्त होता है. मेरा मन हुआ कि उन्हें कहूँ कि फिर वैसा वे फिर से वैसा नाचे मैं फोटो लेना चाहता हूँ ,पर ये फोटो बनावटी लगती, हो सकता  कि  उनकी निजता को ठेस लगती और फिर वो कभी दिल से न नाचतीं. या बंद कर देती नाचना, वैसे भी  आज की दुनिया में मन से नाचने वाले वैसे भी कितने बचे हैं.

जब कभी में जंगल से गुज़रता हूँ तब साइकिल से स्कूल आ-जा रही लड़कियों को देखता हूँ, तो सोचता हूँ  जिस जंगल में अपने पिता और उनके शिकारी मित्र एस.के सिन्हा साहब के साथ बचपन में शिकार पर जाता था, वहाँ आज विकास ने दस्तक दी है और आदिवासी बालिका स्कूली ड्रेस में सहेलियों के साथ गीत गाते जाते दिखाई देतीं हैं. तब भला किसी ने ये सोचा था कि एक दिन ये सब सम्भव  होगा . किसी ने सही कहा है कि,  ‘कभी-कभी बदलाव की गति इतनी तेज होती है की वो प्रत्यक्ष दिखाई देती है..!!




                                    

रविवार, 2 जून 2013

नक्सली समस्या,सेना का उपयोग क्यों नहीं ! .





 नक्सली छोटी-छोटी वारदात के बाद फिर कोई ऐसी बड़ी हिंसा के घटना को अंजाम देते है कि, सारा देश चिंतातुर हो जाता है. और फिर नेता घटना को कायराना निरुपित करते हुए ,उसकी भर्त्सना ,जाँच की घोषणा करता है. नक्सलियों की अंतहीन वारदातें ये साबित करने के लिए काफी है कि सरकार इस मोर्चे अब तक असफल है  जैसी बातें की जाती वो सब सांप निकालने के बाद लकीर पीटने के अलावा कुछ नहीं. मामला घर का है, इसलिए 'सेना की कोई जरूरत नहीं ये भी बयान में साथ चिपका दिया जाता है'..खुद से कुछ होता नहीं, और सेना को करने देते नहीं ..!

 1967 नक्सलबाड़ी विद्रोह को घटना आज माओवाद का रूप ले चुकी है..जिसके विचार में क्रांति बंदूक की नाल से निकलती है. पंद्रह साल के दौरान देश में 2500 जवान माओवादियों की गोली से शहीद हो चुके हैं. दस साल में पांच हज़ार करोड़ रूपये दस साल में खर्च हो चुके हैं..मगर माओवाद देश में पसरता जा रहा है..राज्योद्य के पहले छतीसगढ़ ‘शांति का टापू' माना जाता था. यद्यपि नक्सलवाद का बीजा रोपण हो चुका था. पर फिर 2005 में महेंद्र कर्मा की अगुवाई में ‘सलवा जुडूम’ का प्रयोग किया गया..अब बस्तर का आदिवासी जीवन अशांत हो गया था . नक्सली भी इसके खंदक की लड़ाई लड़ने लगे. फिर सलवा जुडूम बंद हुआ. रमन सरकार ने इसे किसी  नाजायज संतान की तरह अपना कहने से इनकार कर दिया..! दूसरी तरफ सलवा जुडूम के कारण शिविर में रह रहे हजारों विस्थिपितों की जान पर बन आई और नक्सली आज तक इसके नेताओं से बैर भांजा रहे हैं.

‘कोया कमांडो” का प्रयोग भी औंधेमुंह गिरा..! दूसरी और नक्सली अपनी ताकत में इजाफा करते गए. बस्तर के वन जहाँ भोले आदवासियों के वास है वे गुमराह होने लगे ..माओवाद का प्रसार दूसरे जिले में भी हो गया..! आरण्यसंस्कृति में विकृति आ गई .बस्तर संभाग में अर्से से पिछड़ेपन और शोषण ने नक्सलवाद के लिए उर्वरा भूमि तैयार कर दी थी ..नक्सली गार्ड की हत्या कर कलेक्टर एलेस्क्स पाल को उठा ले गये , जवानों सहित एसपी विवोद चौबे की हत्या, जवानों से भरी गाड़ी को उड़ने के बाद गोलीबारी कर सब को शहीद करने जैसी गंभीर वारदात होती रही हैं ,और सरकार माओवाद की गोली के जवाब में सफ़ेद कपोत उड़ती रही है ..! जो प्रयास किया गया वो कभी परवान न चढ़ा..!

25मई 2013 को तो जीरम घाटी में नक्सलियों ने सड़क पर विस्फोट कर प्रदेश कांग्रेस के काफिले पर योजना बनाकर बेरहमी से हमला किया उसकी गूंज दिल्ली दरबार तक पहुँच गई. इस हमले में बस्तर का शेर का महेंद्रकर्मा, प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नद्कुमार पटेल के सुपुत्र दिनेश पटेल सहित 29 की हत्या क़र दी, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीसी शुक्ल गंभीर  घायल हुए. उनको चार गोलियां लगी हैं.

 सभी बड़े नक्सली हमले एक ही तरीके से किये जा रहे हैं - सड़क में विस्फोट कर गाड़ी को उडाओ और फिर घेर कर अँधाधुंध गोलीबारी कर सबको ख़त्म कर दो..हमारे विशेषज्ञ इस रननीति की  कोई काट नहीं खोज सके हैं . ये बात भी समझ के परे है कि सुरक्षा के लिए तैनात जवानों की गोलियां खत्म हो जाती है वे शहीद हो जाते है पर गोलीबारी करने वाले नक्सली नहीं मारे जाते..! इसका कारण खोजना होगा..! हर बार हमारा सूचनातंत्र काम नहीं करता और खेद है कि इसका कोई जवाबदार भी नहीं होता.

 पानी सिर से ऊपर हो चुका है, कांग्रेस के काफिले पर हमले के बाद अब सरकार के ‘सामने करो या मरो की दशा है’ .पता नहीं इस मसले को कितनी गंभीरता से लिया जा रहा है. अलबत्ता कांग्रेस और बीजेपी के लोग एक दूजे पर साजिश का कीचड़ उछाने में लगे हैं..न्यायिक जाँच शुरू हो गई है,उसके प्रतिवेदन पर कितना अमल होगा ये आने वाला समय ही बताएगा. एनआईए इस गोलीकांड की विवेचन कर रही है.

नक्सली समस्या का निदान कैसे-

1 ये बात तय हो चुकी है कि नक्सलियों ने आदिवासियों के बीच पैठ बना ली है. सैकड़ो नक्सली जमा होते हैं और कोई गाँव वाला उनकी सूचना शासन को नहीं देता..इसके दो कारण होंगे.
अ.    आदिवासी नक्सलियों के प्रतिशोध से डर चुके हैं और वे अपनी जान जोखिम में डालने के लिए तैयार नहीं.
     ब .आदिवासियों का विश्वास नक्सली जीत चुके हैं ,और गाँव वाले उनकी लड़ाई को अपनी मान कर साथ दे रहे है. चाहे वो छले ही जा रहे हो.
इन दोनों बातों का निदान कराना होगा.

2 नक्सलियों लड़ाई की शैली जानी पहचानी है, यहाँ वो  चक्रव्यूह रचते हैं, और ‘अभिमन्यू’ घिर कर शहीद हो जाते हैं, पर अगर नक्सलियों का पाला ‘अर्जुन’ से पड़े जो उनके बिछाए चक्रव्यूह हो तोड़ना जाते हो तो हर मोर्चे में उनको बड़ी जनहानि होगी, जिससे उनके हौंसले पस्त होने में देर न लगेगी..! जब जान का जोखिम जब समझ में आएगा तो गाँव वाले भी हाथ खींच लेंगे. जुड़े प्रदेशों में नक्सली उन्मूलन के लिए सयुंक्त अभियान की बात होती है पर बेहतर नतीजे नहीं मिल रहे..?

3.पुलिस का सूचनातंत्र फेल होने की बात हर बार उजागर होती है. जबकि नक्सलियों के सूचनातंत्र को बेहतर माना जाता है. ये किसी लडके  संगठन के लिए सबसे कमजोर पहलू है. जब तक सूचनातंत्र पंगू रहेगा ,नक्सलियों को रणनीति बनाने और  वारदात में मदद मिलती रहेगी..! आज सादे कपड़ों में नक्सली और ग्रामीण में विभेद करना कठिन है, दशा ये बनानी होगी  कि पुलिस के आदमी और ग्रामीण में अंतर करना कठिन हो जाए ..!

4 ये हकीकत है कि आज पुलिस के जवान जिनको ‘मलाई खाने’ की आदत है वो नक्सली एरिया नहीं जाना चाहते, तोंदूल पुलिस अधिकारी कर्मचारी को वीआरएस दे कर विदा करें, नए उत्साही निशानेबाज पुलिस बल बनाया जाये जिन्हें आकर्षक वेतनमान दिया जाए ..! इनकी ट्रेनिंग भी कमांडो सी हो ..!
5. जब समस्या नासूर हो रही है तो सेना को बस्तर में उतंरे को हिचका न जाये, नक्सली समस्या निदान के लिए 1968 में पश्चिम बंगाल ने सेना की सेवा ली गई थी, असम और कश्मीर में सेना आज भी है..हम अगर दूसरे क्या कहेंगे ये सोच सरकार भीरु बनी है ,तो यहाँ महात्मा गाँधी के को स्मरण करना होगा, जिन्होंने कहा था-  ‘’जहाँ सिर्फ कायरता और हिंसा के बीच किसी एक के चुनाव की बात हो तो मैं हिंसा के पक्ष में राय दूंगा.” [सभी फोटो गूगल से साभार].

           हिंसा का आघात तपस्या ने कब कहाँ सहा है..?
           देवों का दल सदा दानवों को हराता  रहा है ..! –